अब
विश्र्वात्मक देव को नमन।
होता
वाग्यज्ञ का समापन।
तुष्ट हों,
दें मुझे दान।
प्रसाद का।
कि
दुष्टों की दुष्टता हटे,
सत्कर्मों
में चित्त लगे।
परस्परों
में प्रीती बढे,
मैत्र-भाव
से।
दुरितों का
तिमिर छटे।
विश्र्व
स्वधर्म सूर्य देखे।
जो जो चाहे
वही लहे।
प्राणी
जात।
चंद्रमा
ज्यों अलांछन।
मार्तण्ड
ज्यों तपाहीन।
ऐसे
ही सबों को सज्जान।
सगे
होवें।
श्री
विश्र्वेश्र्वर ने तब कहा।
यही तुझको
प्रसाद दिया।
इस वर से
ज्ञानदेव हुआ।
सुखिया
सुखिया।
सुखिया
सुखिया।
सुखिया
सुखिया।
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