रेशम कोष
-- लीना मेहेंदळे
1988 में कभी
published in Akshar-Parv Raipur
1986-88 के दौरान मैंने रेशम उद्योग की काफी पढाई की थी और महाराष्ट्रमें बेरोजगारी दूर करने के लिये रेशम संबंधित कई योजनाओंका प्रारूप बनाकर वरिष्ठ अधिकारियोंको पेश की । हर योजना में मैंने लीकसे हटकर कोई सुझाव दिया होता था जो जमीनी हालातोंके अनुरूप होता था। और हर बार यही सुनना पडता -- "परन्तु यह बात उस स्कीम में नही बैठती, उस स्कीमसे बाहर हम कैसे जायेंगे?"
जब कुछ भी न कर पाई तो खीज कर यह कविता लिख डाली --
रेशम का एक कोष
अपने इर्द-गिर्द बुन लेना
हम सबने सीखा होता है
रेशम के कीडेसे।
फिर ये कहना कितना सहज है
"कि हमारी असफलताएँ,
हमारे कारण नही
बल्कि इस कोष की
फिसलनभरी दीवार के कारण है
हमें रहना पडता है
इन दीवारोंकी मर्यादा में
दीवार चटख न जाये,
मर्यादा टूट न जाये"
कोष के रेशमी बंधनोंका मोह
तोडना आया है
केवल उस कीडेको
जिसके पंखोंके उडनेकी ललक
नही रोक पायेगी कोई दीवार
बन जायेगा वह एक तितली
करनेको जीवन-चक्रके
दूसरे पर्व की शुरुआत।
हम और आप पडे रहेंगे
अपनी ही गढी
सच्ची झूठी
चमकीली सुनहरी
फिसलनभरी दीवारों को भीतर
सहलाते हुए अपनी अकर्मण्यता,
कि क्या करें,
यह दीवारें
कुछ करने नही देतीं।
--------------------------------------------------------------------
Sunday, October 21, 2012
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment