Sunday, October 21, 2012

दौड

दौड
( १९८० में किसी दिन)

published in Akshar-Parv Raipur


सूरज, तुमसे वादा  था --
फिर एक दौड का
वैसी ही जैसी कल
लगाई थी मैंने तुम्हारे साथ
या तुमने मेरे साथ?

अजन्तासे औरंगाबाद के सफर में,
जहाँ खतम होते चले गये
घुमावदार घाट
और सिलसिला शुरू हुआ
सह्याद्री- शिखर के
सपाट पठारों का--


जहाँ ऊँचाई पर मैं
अपनी कारकी गतिको
बढावा देने मैं मस्त
और नीचे वादियों में तुम
अस्ताचल की ऊर्ध्वाधर दिशा भूलकर
दौड लगाते मेरे साथ

तब तय किया था।

लेकिन आज जब माकू
अपने पोंपले मुँह में
नये नवेले निकले दो दाँतोंको
दिखाता हुआ हँस दिया

तो लगा जैसे
उसी नटखटपनेसे
तुमने कहा हो --
देखो, मैं जीत गया ।
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