मैं, तुम और हम
वर्ष 2000 के आसपास कभी
अक्षरपर्व रायपुर मासिक में प्रकाशित -- 2006 में कभी
कभी रास्ते पर चलते हुए
मिल गए मैं और तुम
चलते रहे...
मिलते रहे
अचानक देखा
दोनोंके बीच खडा था
" हम "
कुछ तुम्हारा हिस्सा,
कुछ मेरा,
कुछ तुमने सँवारा उसे,
कुछ मैंने
" हम " बढता चला
कुछ चुराकर तुमसे तुम्हें,
कुछ चुराकर मुझसे मुझे,
तुम्हारा दिल,
तुम्हारा वक्त,
तुम्हारी सोच,
तुम्हारे सपने,
कुछ मेरा भी दिल,
मेरा भी वक्त,
मेरी भी सोच,
मेरे भी सपने,
हम कितना खुश थे,
साझे में
कुछ तुमने भुला दिया तुम्हें,
कुछ मैंने भुला दिया मुझे,
और पाला एक एहसास " हम " का
अधमुँदी आँखों में साझेके सपनों का
वक्त बहता रहा
आँखें खुलने लगीं
अचानक मैंने पूछा " मैं कहाँ हूँ ? "
और तुमने पूछा " तुम कहाँ हो ? "
तुम्हारे और मेरे बीच
क्यों है यह "हम" ?
कौन है ?
कहाँ से आया ?
क्यों इसे मैंने गँवारा किया
मुझे ही भुलाकर ?
क्यों इसे तुमने गँवारा किया
तुम्हें भी भुलाकर ?
यदि यह "हम" रहा
तो मेरा क्या होगा ?
और तुम्हारा क्या होगा ?
चलो इसे यहीं पर छोड कर चल दें
तुम्हारे रास्ते पर तुम
तुम्हारी मस्ती में
मेरे रास्ते पर मैं
मेरी मस्ती में।
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Sunday, October 21, 2012
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