Friday, December 30, 2016

वर्णिकाओं, सुनो, तुम रातको बाहर ना निकलो

गर्भनाल पत्रिका के लिये मेरी लघु-कविता --
वर्णिकाओं, सुनो   
तुम रातको बाहर ना निकलो
तुम घरसे बाहर ना निकलो
तुम माँ के पेटसे ना निकलो 
तभी तुम हमसे बचोगी।
हम हैं रावण 
और राम तो इस देशसे विदा हो चुके हैं
हम हैं द्यूत-सभाके दुःशासन और कर्ण 
और कृष्ण तो इस देशसे विदा हो चुके हैं
चण्डी-काली-दुर्गा -- वो क्या होता है -- ऐसा भी कोई कभी इस देश में है या था क्या
और हमारी माँकी बात ही मत करो --वह होगी किसी वृद्धाश्रममें - 
इस देशसे मातापूजन की संस्कृति भी निकल चुकी है।
अब तो बस हमारा ही राज है -- हम हैं वो जो ढूँढते मिलेंगे शिकार बलात्कारके लिये।
और अगर मर गई सारी लडकियाँ तो लडकोंकाही शिकार करेंगे।
-- लीना मेहेंदळे ९ अगस्त (क्रांतिदिन) २०१७

Wednesday, December 7, 2016

पसायदान --ज्ञानेश्वर -- शेवटची ४ कडवी


अब विश्र्वात्मक देव को नमन।
होता वाग्यज्ञ का समापन।
तुष्ट हों, दें मुझे दान।
प्रसाद का।

                  कि दुष्टों की दुष्टता हटे,
                  सत्कर्मों में चित्त लगे।
                  परस्परों में प्रीती बढे,
                  मैत्र-भाव से।

दुरितों का तिमिर छटे।
विश्र्व स्वधर्म सूर्य देखे।
जो जो चाहे वही लहे।
प्राणी जात।

                  चंद्रमा ज्यों अलांछन।
                  मार्तण्ड ज्यों तपाहीन।
                  ऐसे ही सबों को सज्जान।
                  सगे होवें।

श्री विश्र्वेश्र्वर ने तब कहा।
यही तुझको प्रसाद दिया।
इस वर से ज्ञानदेव हुआ।
सुखिया सुखिया।
सुखिया सुखिया।
सुखिया सुखिया।


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