Monday, August 8, 2011

मुक्तायन से -- याचक

याचक

एक था याचक
जिसका कटोरा
कभी नहीं भरता था।

नृपालों ने दिये
सिंहासन,
कुबेर ने डाले स्वर्ण भंडार,
फिर भी कटोरा खाली ही रहता था।

पंडितों ने शब्द दिए,
पुरोहितोंने दान-पुण्य,
साधुओंने सत्व डाला,
वीरोंने अविरत कर्म,
फिर भी कटोरे का तल दीखता था।

फिर याचक आया
एक भिखारिन के द्वार पर,
जहाँ उसका बच्चा
अधढँके स्तनों पर दूध पी रहा था।

याचक ने कहा
माई, दे दे कुछ भीख ---
माई ने वक्ष से
बच्चे को अलग किया.,
फूट रही धार से,
दो बूँद दूध का याचक को दान दिया।

लबालब भर चला
याचक का कटोरा,
अथाह सागरसा।

आज वही याचक,
कृतज्ञता में भरकर,
पृथ्वी पर सबको बाँट रहा है दुग्ध-कण।
इसी कारण,
हाँ इसी कारण,
इतना कुछ होकर भी
टिका हुआ है मानव जीवन।
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मुक्तायन से -- वृक्ष

वृक्ष

तुम ही हो वर्षा,
तुम ही हो ग्रीष्म,
मैं केवल एक वृक्ष
अंबर में धँसा हुआ।

झेलता हूँ तेरी बारिश,
तेरी गरमी,
तेरा तूफान,
भीतर तक थका हुआ॥
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मुक्तायन से -- स्वर

स्वर

सबसे मधुर स्वर
न महफिल के गाने का
न पहाडी झरने का
न कोयल के कूजन का
न सागर की लहरों का
न आमंत्रक होठों की
मौन किलकारी का।

सबसे मधुर स्वर
कहीं पर किसी के
हाथ पाँव पडी श्रृंखला
छनछनाकर टूटने का।
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मुक्तायन से -- सूर्यास्त से

सूर्यास्त से

सूर्यास्त से
ये चंद किरण
तोड लाया हूँ मैं।
आजकी असह्य,
भयानक
तूफान भरी रात के लिए।

शायद नहीं ये
देंगे प्रकाश,
नहीं जला पायेंगे
ज्योत से ज्योत।
रखेंगे केवल जागृत
सूर्योदय कल का,
तुम्हारे व मेरे
अंतस् की आशा का।
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Sunday, August 7, 2011

मुक्तायन से -- सस्ता सौदा सरकारी

सस्ता सौदा सरकारी

पैर तले रौंद कर,
जगदम्बा के समान
ग्रीष्म के दोपहर की
हिंヒा, राक्षसी धूप
बबूल के पेड तले
क्रेश में लिटाए हुए
बच्चे की बिलखती
अंतडियों की भूख
आर्तनाद से छलका
चोली में जो दूध
बाँध वापस चोली में,
प्राणांतिक आवेश में ----
फोड रही है पत्थर -----
गढ रही है कल यहाँ से
जानेवालों का रास्ता,
और परसों
देश में जन्मनेवालों का
भविष्य।
और यह सब
रोजगार हमी योजना के
तीन रुपयों में केवल।
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मुक्तायन से --संवाद

संवाद

जब आप
बातें करें मेरी कविता से
तो मुझसे ना बोलें।
क्यों कि मेरी कविता में
मैं भी हूँगा थोडा बहुत
पर मुझसे बातें करने में
केवल आप ही होंगे शायद
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मुक्तायन से --सातवाँ चम्मच

सातवाँ चम्मच

चम्मच रखने के स्टँड पर
रख्खे पडे थे सात चम्मच
पर एक दिन एक चम्मच
खो गया।

बाकी छ चम्मचों के गले से,
फूट पडी अविरत रुलाई
जीवन में पहली बार।
'वह यदि होती'---- बोले चम्मच,
'तो वह नहीं खोता '।

मैं भी अचानक
बन गया सातवाँ चम्मच
और उसकी खाली जगह लेकर
छहों चमचों की रुलाई में हुआ शामिल
और पुटपुटाया ----
सच है दोस्तों,
वह यदि होती
तो मैं भी न खोता।
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मुक्तायन से --पगडंडी पर

पगडंडी पर

पृथ्वी पर,
कीचड में चलते हुए
फिसला उसका एक पैर,
और जा गिरा सीधा
आकाशगंगा में।

महत्प्रयास से
धडपडाते हुए,
तडफडाते हुए,
खींच निकाला पैर
और दुबारा चलने लगा।

अब उसके हर कदम से
प्रगटते हैं,
पगडंडी पर
असंख्य तारका - पुंज।
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मुक्तायन से -- मुक्त

मुक्त

तोडकर पिंजरा
उड चला पंछी
जखमाए पंखों से
बह चला रक्त
शस्य श्यामल भूमि पर
लाल रेषा टेढी-मेढी
आँकता हुआ ----

उड चला है अपने
घोंसले की ओर,
या शायद अपनी
मृत्यु की ओर।

आकाश माने उसे
करुणा पात्र पर,
छीन नही सकेगा
उसका रक्त-रंजित
आनंद व अभिमान,
कि पिंजरे को उसने
तोड दिया है।
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मुक्तायन से -- हिम्मत

हिम्मत

सुनी खबर आपने ?
राजधानी से
सिंहासन के सिंह,
पॉलिटिक्स से त्रस्त,
भाग चुके हैं जंगल को।
खोज है राजधानी में जारी
अन्य प्राणियों की।

प्रार्थी भी हैं बहुतेरे,
फिर भी दो प्राणी,
धोबी की सेवा से ऊबे,
कॅम्पेनिंग कर रहे
बडे आत्मविश्र्वास से ----

हम ही हैं लायक
क्यों कि,
सारे अखबारों को
संपादकीय समेत
चबा जाने की
और पचाने की हिम्मत
रखते हैं ---
केवल हम।
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मुक्तायन से -- गर्भगृह

गर्भगृह

पधारिए
हमारा मंदिर देखने आए
आपका स्वागत है।
मंदिर का स्वर्ण शिखर तो आपने देख ही लिया
इन नक्काशीदार चाँदी के दरवाजों की
महीन कारीगरी भी देखिए।

आइए अब आगे चलते हैं ----
यह विस्तृत सभामंडप,
ऊँचे दीपस्तंभ,
फूल - मालाएँ, प्रसाद भंडार
भक्तगणों के रेले
उनको संचलित करने को लगे हुए लोहे के चैनल्स,
ये केवल पूर्वी दरवाजे के लिए हैं।

मंदिर के तीन द्वार हैं --------
उत्तर, पूर्व और दक्षिण।
उत्तर द्वार को तो आपने देखा ही है !
उससे आती हैं शिफॉन की साडियाँ --
और रोल्स रॉइस गाडियाँ,
उन्हें संचलित करने की आवश्यकता नही
वे ही संचालक हैं,
माई बाप हैं।

वैसे दक्षिण द्वार हम कम ही खोलते हैं
उधर का रेला गरीब -दुखियारों का है
दक्षिण द्वार से दुतरफा
ऊँची, लम्बी, बाडें बनाई हैं ---
वो क्या है कि उधर की हवा
उत्तर द्वारवालों को
परेशान करती है ---
पसीने की हवा
मिट्टी - सने अंगों की हवा
सादे पानी में धुले कपडों की हवा ---

पर श्रीमान् व्याकुल न हों,
देखें गर्भगृह का द्वार,
और अंतरंग
हीरे पन्नों से जडा यह छत्र
यह चंदोबा
हाँ, भगवान आजकल इस गर्भगृह में नहीं हैं।

वो क्या है कि,
दक्षिण द्वार के हर भक्तगण को
प्रवेश नहीं दे सकते
किसी को रोकना भी पडता है।

सो एक कोढी कई दिनों तक बैठा रहा,
फिर उसने जोर की पुकार लगाई,
हे प्रभु, दर्शन तो दे दे।
और हमारे भगवान थे
कि उठकर चल दिए
तब से रह रहे हैं
उन्हीं दलितों की झुग्गियों में
क्या बताऊँ आपसे,
वह तो अछूत हो गये हैं।

वैसे आप परेशान न हों,
दूसरी मूर्ति का ऑर्डर दिया जा चुका है।
इतालियन संगैमरमर की मूर्ति,
प्राण प्रतिष्ठा की तैयारियाँ भी पूरी हैं।
राजे रजवाडों को निमंत्रण है।

देव के गहनों को गढने
सुनार जुटे हैं --
और रेशम के कारीगर,
और हलवाई,
और पुजारी -------
भगवान से भी कहा है,
वापिस आ जाओ

और शायद वह आ भी जाए,
लेकिन हमारी समिति अभी
निर्णय नही कर पाई है
झुग्गियों, कोढियों के बीच रहे उसको
मंदिर प्रवेश दें या नही?

फिर भी श्रीमन्,
फिलहाल आप आएँ
अन्य झाँकियाँ देखें
गर्भगृह सलामत तो भगवान पचास।
मंदिर में आपका स्वागत है।
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झ््रइस कविता का भावानुवाद मुक्त रूप से किया गया है, इसमें
कविता के मूल फॉर्मेट से हटकर थोडी स्वतंत्रता लेते हुए फैला कर
अनुवाद किया गया है। .

मुक्तायन से -- अहो सौभाग्य

अहो सौभाग्य

उत्तर रात्रि
जयंती की
सभा विसर्जित,
वक्ता वापस,
अब बाकी है
नीरव शांति।

पुतले ने
कंधे झटकाए
गिरा दिए
सब नमस्कार
और फूलमालाएँ।
और पुटपुटाया,
अहो सौभाग्य,
अगली जयंती तक
सहना पडेगा अब साथ,
केवल कौओंका।
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मुक्तायन से -- अच्छा सा

अच्छा सा

मैं एक अच्छे से घर में रहता हूँ।
एक अच्छी सी कुर्सी पर बैठा हूँ।
और एक अच्छा सा विचार भी करता हू।
अच्छा सा विचार करते करते
याद आईं झुग्गी झोंपडियाँ
शाम की देखी।

किरासन की ढिबरी से
उफनते थे धुएँ के निवेदन,
आदमी और वस्तुओं के अधोगत अर्थशास्त्र से,
शराब की सडांध में कुम्हलाया आकाश,
अंधेरे में बिलबिलातीं
विकट सर्पिणियाँ
मार्गस्थों को डंख मारने की हीन दीन कोशिश

हाथगाडियों पर तले जाते कबाब, पकौडे,
गाली गलौज,
नशे में धुत् आँखें जलतीं लाल,
सडक किनारे अलिप्तता से
मरा या मरता हुआ
पडा कोई शरीर
उसी अलिप्तता से
जैसे पेड से गिरे
पका हुआ पत्ता।

साथ मेरे अच्छा सा एक मित्र था, बोला,
इन गंदे कूडा घरों को
जला देना चाहिए
उखाड फेंकना चाहिए इन बस्तियों को
मैंने कुछ विचार किया, पूछा,
और अपनी अहिंसा का क्या ?

उसने कहा अहिंसा एक अच्छा सा विचार है
पर यहाँ बेमानी है।
सवाल है आपके, मेरे जिन्दा रहने का
संस्कृति अपनी टिकाए रखने का
यह बचनागी, कीचड में अमरबेल से,
फैलते ही जायें अगर,
तो ढह पडेंगे हमारे भी शहर,
पाम्पी जैसे।

कुलीन स्त्र्िायाँ भी बनेंगी वेश्याएँ
आदमी बनेंगे दलाल और गुंडे
क्यों कि जो खोटा है,
खींचता है खरे को,
अपनी मैली चादर पर,
जानवर जैसी हीन सतह पर,
उस खोटे को समूल उखाड फेंकने को --------

मैंने फिर अच्छा सा विचार किया, कहा
अच्छा खासा सही है आपका कहा।
लेकिन अब इस अच्छी सी घडी में
सोचता हूँ कि
वैसा हो भी जाए अगर, क्या बुरा है ?
आदमी कैसे जिए
इससे महत्वपूर्ण है और वही सच भी है
कि आदमी जिए।
आया यह ना-अच्छा सा एक विचार
एक अच्छे से घर में
बैठे अच्छी सी कुर्सी में।
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मुक्तायन से -- आखिरी कमाई

आखिरी कमाई

मध्यरात्रि बीत चुकी जब,
शहर के पाँच पुतले
एक चबूतरे पर
बैठे दुखडा बाँटने।

ज्योतिबा फुले ने कहा
मैं केवल मालियों का रहा
छत्रपति शिवराय बोले
मैं भी मराठों से बाहर कहाँ।

आंबेडकर ने कहा,
मैं बौद्ध केवल जाना गया
लोकमान्य तिलक के आँसू बहे --
केवल चित्पावन ब्राह्मणों का मैं।

गांधी का पुतला
रूँधे गले से बोला
फिर भी तुम भाग्यवान सारे।

एक जमात कम से कम
पीछे है तुम्हारे।
मुझे देखो, मेरे पीछे
खडी हैं केवल,
सरकारी दफ्तरों की
पीली दीवारें।
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मराठी माटी से --सार्थक

सार्थक

माटी के चित्रों को दिया तूने नाम पता
माटी के चित्रों को दी भाव - विभोरता।
हृदय तेरे सार्थकता प्रगटी जब ऐसे
माटी के चित्रों ने देव, दिए अश्रु तुझे॥
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मराठी माटी से --कभी मन चाहे

कभी मन चाहे

कभी मन चाहे बनूँ बवण्डर,
उन्मन होकर तेरे द्वार के
सारे दीप बुझाऊँ।

कभी मन चाहे बनूँ दामिनी,
संगमरमरी तेरे महल में
घुसकर जलूँ, जलाऊँ।

कभी मन चाहे बनूँ समंदर,
लाख लाख लहरों में तेरी
जीवन शांति डुबोऊँ।

कभी मन चाहे बनूँ दिनान्त,
सारा तेरा प्रकाश वैभव,
अंधकार बन पी लूँ।

कभी मन चाहे करूँ अघटित कुछ,
और तेरी बाहों में,
अनंतता को पाऊँ।
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मराठी माटी से --हम दोनों

हम दोनों

मैं और मैं, हम दोनों
एक ही घर के वासी,
सोच अलग है, दिशा अलग,
यह भोगी, यह संन्यासी।

यह रख्खे लेखा जोखा
पाई पाई रुपयों का
यह मुग्ध रसिक है
नक्षत्रों के गीतों का।

यह मित्रों, सखियों बीच,
मौज से दिन काटे
यह एकाकी, हृदय व्यथा
भी ना बाँटे।

नीति, रीति का कर विवेक,
यह प्रवाह के साथ चले
यह स्वैर, अनागर, स्वच्छंदी,
कोई बंधन ना पाले।

यह भ्रमर सा रसिक,
खोज नित नई करे
यह चिरंतन का पथिक,
शून्य पथ पर चले।

मैं और मैं, हम दोनों
रहने को एक ही घर,
दो ध्रुवों का मिलन यहाँ,
दो ध्रुवों की दूरी पर।
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मराठी माटी से -- फिर जाऊँगा

फिर जाऊँगा

गये रात मैं जागा
यूँ ही बाहर आया
देखा बादल का तकिया ले
सोई थी धरा।

जगी अचानक
शामल चादर सरकाई
पाया भोर का तारा
रुका अकेला था।

धरा लजाई, पूछा
अबतक क्यों न गए
सिरहाने ही खडे रहे
यूँ दीप लिए।

बोला हँसकर, तेरी
प्रीत की नहीं अपेक्षा
जानूँ मैं किसके आने की
तुझे प्रतीक्षा।

क्षितिजपार से उषा- रथ में
आएगा रवि
नीले वस्त्र उतार
सुनहरी चुनरी लोगी।

रूपगर्विता स्वागत करने
जब निकलोगी,
वह तेरा लावण्य देख लूँ,
फिर जाऊँगा।
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मराठी माटी से -- धर्म संहिता

धर्म संहिता

दे मन को निर्भयता अंतर को बाव सृजन
प्रज्ञा का दीप जले, उज्जवल हो ये जीवन।
जुल्म पाप से बैर, विफलता में अचल धीर,
मानवता बनी रहे परम धर्म संहिता।
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मराठी माटी से -- दीप जलाओ

दीप जलाओ

हुए देवता प्रसन्न बोले,
माँगो जो कुछ भी चाहे,
शस्त्र चाहिए बोला मानव,
पराक्रमी को सब साधे।

मिला शस्त्र और बनी रणांगण
सारी पृथ्वी, हृदय विदारक,
रक्त नहाया मानव फिरसे
खडा द्वार पर बन कर याचक।

क्या है चाह ----- शस्त्र नही अब,
शास्त्रों से मंगल हो जीवन
ज्ञान साधना से ईश्र्वरता,
स्वर्ग धरा का होवे मीलन।

शस्त्र मिला था, शास्त्र भी मिला,
स्वर्ग रहा स्वप्नवत् अभी भी,
हताश मानव निगर्व होकर,
चला प्रभू के सन्निध फिर भी।

चाहता क्या है ----- मूढ बना मैं,
अंधियारे में राह दिखाओ।
हँसे देवता ---- तुझमें ही है,
मानवता का दीप जलाओ।
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हिमरेषा २२ सूची

हिमरेषा २२
अगतिक
आज दोपहर
दिया
इतिहास
कविता प्रेमी
मदिरा
माण्टेसेरी देश
सैनिक
क्यों
ओसकण
नाटक
प्रभुत्व
लैला मजनूँ
कोनशिला
कविता मेरी
स्वांग
स्तंभ
यह चंद्र
स्वामी
यशस्वी विवाह
मध्यवर्गी
लॉ अँण्ड ऑर्डर
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हिमरेषा से --आज दोपहर

आज दोपहर

यह पंछी तो
बैठा मेरे सम्मुख था,
आज सकारे।
उषकाल के
नभ का टुकडा,
उतर पडा था मेरे द्वारे।

अगम शक्ति ने
दान दिए जो
आंचल मेरे,
एक कौतुक तो
उनमें से
यह पंछी भी था।

पर कौन शिकारी,
आज दोपहर
क्रूर कर्म कर गुजर गया था,
विद्ध-शर उर को
लिए यह
मृत पडा था।
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हिमरेषा से --अगतिक

अगतिक

कैसे अगतिक हुए आज हम
ना यह किया न वो ही
चार दिशा में घोडे दौडे
रथ ना हिला जरा ही।
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हिमरेषा से --दिया

दिया

घने अंधेरे
निबिड वनों में
पथिक देखता
दूर एक दिया।

ऐसे ही
तेरे नेत्रों का
स्नेहिल आँसू
मैंने चाहा॥
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हिमरेषा से --इतिहास

इतिहास

आज पढाई इतिहास की
गरजे टीचर स्कूल में,
फिर मूँदी आँखें, सदेह
जा पहुँचे भूतकाल में।
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हिमरेषा से --कविता मेरी

कविता मेरी

कविता मेरी विजय के लिए कभी न थी
इसीलिए ना चिंता इसे पराजय की।
नही जन्म के लिए कभी भी रूठी थी,
इसीलिए यह पडी मौत पर भारी थी।
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हिमरेषा से --कविता प्रेमी

कविता प्रेमी

पहली पंक्ति सुनकर बोला,
कविता दिव्य महान
फिर जो तानी चादर
गूँजा खर्राटों का गान।
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हिमरेषा से --कोनशिला

कोनशिला

गया अचानक गाँव,
देखा पत्थर जमा पडे थे।
पटवारी ने कहा, थोक में
हमने मँगवाए थे।

कोनशिलाएँ मंत्रीजी से
जबतब लगवा लेंगे।
जिम्मेदार पूर्ण करने को,
ना हम ना मंत्री होंगे।
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हिमरेषा से --क्यों

क्यों

छोडकर राजगृह क्यों गौतम वनवास करे ?
अपना ही क्रॉस क्यों येशू पीठ पर धरे ?

सुकरात भी क्यों विषभरा प्याला लगाए होंठसे ?
तत्वच्युत होना नही है, मौत तू लग जा गले।

भूमि धनसे विरत कोलंबस चले सागर के द्वार,
उत्तरी ध्रुव की बरफ में खोज कोई क्यों करे ?

घास की हो रोटी सोने को शिलाएँ हों कठिन
क्यों महाराणा प्रतापी जगलों में ही फिरे ?

सिंहगड की मुहिम पहले, पुत्र ब्याहूँ बाद में
मौत क्यों स्वीकारने नरवीर तानाजी गए ?

पानीपत में हार ही जब तय मराठों की हुई,
सदाशिव को छोड जनकोजी न क्यों भागे चले ?

संधि का प्रस्ताव आया अंगरेजी राज से
लडी रानी मर मिटी क्यों मेरी झाँसी के लिए ?

रोग संकट कोई ओढे कुष्ठ रोगी के लिए क्यों ?
कोई सरहद पर हिमालय को बचाने क्यों लडे ?

करो समझौता सुखों से रहो घर में चैन से,
मंत्र यह जाने न जो क्यों चतुर उसको हम कहें ?
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हिमरेषा से --लैला मजनूँ

लैला मजनूँ

लैला मजनूँ कभी विवाहित
होते भी क्या ?
होते तो वे लैला मजनूँ
रह जाते क्या ?
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हिमरेषासे --लॉ अण्ड आँर्डर

लॉ अण्ड आँर्डर

शक्करदाना लेकर मुँहमें
गुजर रही थी चींटी।
उसके पीछे लगी हुई थी
पुलिस फूँकती सीटी॥
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मध्यवर्गी की समस्या

मध्यवर्गी की समस्या

मध्यवर्गी घिरा पडा है
चिन्ताओं से शत शत
फिर भी एक महा विकट है
सारे जिससे आहत।

सारे आहत बडी समस्या
कैसे किसे बताएँ
प्लेट से करें पान चाय का
या कि कपसे पियें।
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हिमरेषा से -मदिरा

मदिरा

मदिरा पर क्यों रोष आपका,
मैंने पूछा नेता से
उत्तर देने लायक होश
नही बचे थे मदिरा से।
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हिमरेषा से -माँटेसेरी देश

माँटेसेरी देश

कहते नेता भी सच बोलो
थोडा खाओ, सोना जल्दी,
हा हर, हर, यह देश रहेगा
केवल माँटेसेरी।
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हिमरेषा से -नाटक

नाटक

नाटक ही होगा शायद
या --------
नाटक ही है,
शंका मुझे नहीं।

अंधेरे की पगडंडी पर
आए मुझ मुसाफिर पर
जी न्यौछावर करने जैसा
कुछ भी नही।

है नाटक ही, फिर भी
इतनी चतुराई से
मंडित हो यदि,
तो टिकटों का हिसाब
करना मुझे नहीं।
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हिमरेषा से -नाटक

नाटक

नाटक ही होगा शायद
या --------
नाटक ही है,
शंका मुझे नहीं।

अंधेरे की पगडंडी पर
आए मुझ मुसाफिर पर
जी न्यौछावर करने जैसा
कुछ भी नही।

है नाटक ही, फिर भी
इतनी चतुराई से
मंडित हो यदि,
तो टिकटों का हिसाब
करना मुझे नहीं।
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हिमरेषा से --ओसकण

ओसकण

अनंतता का गहन सरोवर,
मंझधारे में विश्र्वकमल है
खिला सनातन।

कमल पँखुडी पर
पडा हुआ है
एक ओसकण।

उसके झिलमिल कंपन को,
हम धरती के वासी मानव,
कहते जीवन॥
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हिमरेषा से --ओसकण

ओसकण

अनंतता का गहन सरोवर,
मंझधारे में विश्र्वकमल है
खिला सनातन।

कमल पँखुडी पर
पडा हुआ है
एक ओसकण।

उसके झिलमिल कंपन को,
हम धरती के वासी मानव,
कहते जीवन॥
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हिमरेषा से --प्रभुत्व

प्रभुत्व

मैं कहता था शरीर मेरा, पर अनंतर,
मान रहा हूँ मैं शरीर का प्रभुत्व उसका
पानी ले आकार वही जो होगा घट का,
धागा धागा बन जाता है हिस्सा पट का।
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हिमरेषा से --सैनिक

सैनिक

सैनिक जो हमको दिखता है,
नाटकों का समर धुरंधर,
शत्रु खेमे में धँस जाए
सहास्य मुख, भवपाश तोडकर।

ताव मूँछ पर देकर कहता,
जन्मा कोई पूत माई का ?
चटनी करता सौ शत्रू की,
फिर नेपथ्य देखकर हँसता।

किन्तु रेल में कभी दीखते
बदरंग, खाकी ड्रेस पहनकर
फटे दोने में दहीबडे खानेवाले,
दोहा, अभंग, बिरहा कोई गानेवाले।

ऐसा सैनिक जब मिलता है
जम्हाई लेकर डयूटी का दुखडा रोता है,
भली नौकरी क्लर्की की
डयूटी केवल कुर्सी की।

तनखा, ओ.टी. महीने की,
गिनती नही कोई छुट्टी की।
सैनिक पेशा कष्टभरा है,
डिसिप्लीन का बोझ बडा है
पत्नी बच्चे बरसों दूर,
कहते गला भर्रा जाता है।

ऐसा वीर रूप देखकर,
मध्यवर्गी श्रद्धा अपनी
जो नाटक से सीखी हुई थी,
व्यथित होकर पूछने लगी,
क्या सैनिक ऐसे भी होते ?

सच मानों तो सैनिक ऐसे ही होते हैं
परंतु जो हम नही जानते -----
नाटक के सैनिक का मरना,
नाटक, केवल तालियों के लिए
वीरश्री से भरे शब्द जो
वाहवाही के लिए जुटाए
पटाक्षेप के हो जानेपर
वापस घर में खाए, सोए।

किन्तु रेल का जो सैनिक है,
हाथ भले ही दहीबडे का दोना हो,
भले बात में कठिन डयूटी का रोना हो,
घर आंगन को सोच नैन में पानी हो,

जब अपना यह टिनोपाल का
मुलुक छोडकर जाता है
तोप, टँक, तम्बू की दुनियाँ का
रहिवासी होता है।

तब ना रहती कोई जम्हाई,
कोई दुखडा
दूर देश के आप्तजनों का
कोई बिरहा,
बदरंग कवच रेल में जो था,
गिर जाता है,
मूर्तिमंत पुरुषार्थ युद्ध में
भिड जाता है।

रेल का वही सैनिक, तोपें दाग रहा है।
आसपास की बमबारी में जाग रहा है
खन्दक के पीछे जो साथी छुपा हुआ है,
उसके लिए रोटी का टुकडा बचा रहा है।
शरीर छलनी होवे फिर भी
अशरण बाँहें ताने ऊपर,
इस धरती पर गिरनेवाली
नभ की छत को तोल रहा है।
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हिमरेषा से -- स्तंभ

स्तंभ

विशाल भारी इस खंभे का
सूक्ष्म काँपना, अभी आपने
देखा नही ?
कारागृह यह नरसिंहका,
ईंट चून का निर्जीव कोई
स्तंभ नहीं।

ऐसी ही थी वह संध्या भी,
ना दिन था ना रात चढी थी
राज भवन में,
पद प्रहार उन्मत्त हुआ तब
काल कृतांत ही मानों उदित
हुआ स्तंभ में।

कोमल करुणामय ईश्र्वरता,
श्र्वापद होकर ऐसी भयानक
जब आती है,
हिंヒा नखों से विदीर्ण करके
अन्यायी की देह, शांत
तब ही होती है।

जगह जगह जो आज स्तंभ ये
ईंट चून के या लोहे के,
फौलादों के।
सावधान अवतरण करेंगे
नारसिंह, परिमार्जन करने
अन्यायों के।
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हिमरेषा से -- स्वामी

स्वामी

मैंने शब्दों के ढर अमाप लगाए
कभी हुए जख्म तो शब्दों ने सहलाए।
अब बन बैठे हैं स्वामी इस जीवन के
मैं मदारी, अंकित अपने जानवरों के॥
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हिमरेषा से -- स्वांग

स्वांग

आपही कहो, बिना स्वांग के कैसा जीवन ?
जीवन यानि चतुराईसे स्वांगों का करना संपादन।

संस्कृति सारी टिकी हुई है स्वांगों पर ही,
बहुविध स्वांगों से है धरती भरी हुई,
रची बसी है समाज महता स्वांगों में ही,
स्वांग तत्व यदि निकल गया तो उजडेगा यह रंगायन।

मैं भी भरता स्वांग अनेकों, झूठ नही
आप भी हैं नट कुशल, मुझे संदेह नहीं
आदिकाल से प्रथा स्वांग की चली रही,
इन स्वांगों ने मरुभूमि में रचा है थोडा नंदनवन।

बहुतेरे हैं मुखौटे यहाँ दीवार पर,
कुछ प्रेमी, कुछ कुरूप और कोई सुंदर,
कहीं वीर मैं, कहीं साधु तो कहीं कलंदर,
एक मुखौटा मुख पर मेरे करने को आपका भी रंजन।
आपही कहो, बिना स्वांग के कैसा जीवन ?
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हिमरेषा से -- स्वांग

स्वांग

आपही कहो, बिना स्वांग के कैसा जीवन ?
जीवन यानि चतुराईसे स्वांगों का करना संपादन।

संस्कृति सारी टिकी हुई है स्वांगों पर ही,
बहुविध स्वांगों से है धरती भरी हुई,
रची बसी है समाज महता स्वांगों में ही,
स्वांग तत्व यदि निकल गया तो उजडेगा यह रंगायन।

मैं भी भरता स्वांग अनेकों, झूठ नही
आप भी हैं नट कुशल, मुझे संदेह नहीं
आदिकाल से प्रथा स्वांग की चली रही,
इन स्वांगों ने मरुभूमि में रचा है थोडा नंदनवन।

बहुतेरे हैं मुखौटे यहाँ दीवार पर,
कुछ प्रेमी, कुछ कुरूप और कोई सुंदर,
कहीं वीर मैं, कहीं साधु तो कहीं कलंदर,
एक मुखौटा मुख पर मेरे करने को आपका भी रंजन।
आपही कहो, बिना स्वांग के कैसा जीवन ?
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हिमरेषा से -- यह चंद्र

यह चंद्र

उस चंद्र का इस चंद्र से
जरा भी नही नाता रिश्ता।
उस चंद्र पर
आते जाते हैं
कुत्ते, वानर, मानव,
बैठकर अंतरिक्ष- यानों पर,

लिए हाथ में यंत्र,
नापते पर्वत महाविशाल,
और जो धातु पा सकते,
और जो गाँव बसा सकते।

इस चंद्र के लिए
कोई भी राह नही निश्च्िात
ना निश्च्िात कोई ठिकाना,

कहने को यह भी
नभ का है दरबारी,
पर इसका राज चले,
सहヒा हृदयों पर
इंद्रजाल डालकर,
मन की गहन
गुफाओं में छिपकर।

चंचल बालक सा
कभी छिपा नीम के पीछे,
कभी पडा रहे रमणी के
पीन पयोधर नीचे।

कभी भग्न शिखर मंदिर पर,
बृहस्पति सा करता चिंतन,
कभी बावरा, नदी में गिरा,
काँपे थर थर पानी के संग।

कभी किले के
बुरुजों पर चौकसी
कभी पनघट पर
कीचड बीच फिसड्डी।

कभी थोडा सा
छप्पर अलग हटाकर,
चुपके से जम जाये
किसी खटिया पर

बलात् खोल कर पलक किसी की,
कमल नैन में घुस जाए,
प्रतिभाशाली किसी कवि को
गूढ विश्र्व के भेद बताए।

ऐसा बहुरूपी, नट, नटखट
और कलंदर
चंद्र छुपा है तेरे मेरे
मन के अंदर।
इस चंद्र का उस चंद्र से
कैसे हो कोई नाता रिश्ता ?

उस चंद्र पर
चढ जायेंगे शास्त्रज्ञ,
विज्ञानों की सीढी लगाकर
इस चंद्र को
पकड सकेगा कोई रसिक मन,
ताल, तलैया या नयनों में
केवल पलभर।
-----------------------

हिमरेषा से -- यशस्वी विवाह

यशस्वी विवाह

यशस्वी विवाह की
क्या होती है शर्त ?
एक पक्ष अति बुद्धू हो
दूसरा हो धूर्त।
-----------------------------

पाथेय से --स्वतंत्रता के सैनिक को

स्वतंत्रता के सैनिक को

उस जलते हुए इतिहास के
अंगारों पर चलते हुए,
ज्वाला के ही दुशाले
देह पर लपेटे हुए,
आप वर्तमान में आए,
शत - शत धन्यवाद।

पर इस बर्फीली, ठिठुराई
अनुभूतियों के देश में
कुछ अंगार भी साथ लाते
तो अच्छा था।
पर आप क्या लाए ?
बस एक शिफारसी पत्र,
उसी इतिहास के जेलरों का।
-------------------------------------------------

पाथेय से --सिवा

सिवा

मैं प्रांत नही देखता
देश के सिवा
और देश नही देखता
पृथ्वी के सिवा

पृथ्वी भी न दीखती मुझे
विश्र्व के सिवा
और विश्र्व नही देखता
अपने सिवा

तस्मात्, 'सिवा'को नमस्कार।
------------------------------------------

पाथेय से --सवाल है

सवाल है

मैं बात नही करता
दूरस्थ तारिकाओं की
उन पर तुम्हारी मल्कियत
कभी भी न थी।

लाखों प्रकाशवर्ष हमसे दूर,
वह ब्रह्म ज्योतियाँ
कभी उगेंगी, कभी डूबेंगी
कभी मेघों में धूसर होंगी।

मेरा सवाल है ---
तुम्हारे स्वामित्व की,
तुम्हारे निजी आकाश की
तारिकाओं को लेकर।

यदि वे बुझ गईं हों,
तो दूरस्थ तारिकाएँ तो क्या,
सहヒा सूर्य भी,
तुम्हारी राह पर,
बिछायेंगे केवल अमावास।
--------------------------------------------------------

पाथेय से --पुतले मान रहे आभार

पुतले मान रहे आभार

दिनांक ९ अगस्त,
विदित हो ------
आपके भेजे हार पहुँचे,
जयघोष पहुँचे,
जो कल्पनातीत थे,
वह लष्कर के सैल्यूट भी पहुँचे।

फाँसी पर चढते हुए,
घर बार को फूँकते हुए,
स्वतंत्रता की वेदि पर
रक्त तर्पण करते हुए,
हमारे कुछ सपने थे ---

कि रंक के माथे छप्पर चढे,
नंगे शरीर को मिलें कपडे,
आधे पेट को पूरी रोटी हो,
स्वतंत्रता हमारी सुफल हो।

जयघोष के थमने पर,
उत्सव दीपों के बुझने पर,
नीरव मध्य रात्रि में,
आये झुण्ड गीधों के,
चोंच में लिए हुए,
टुकडे उन सपनों के।
वह टुकडे भी पहुँचे --
आभार !
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पाथेय से --कृपा

कृपा

मेरे घर की थीं
टाँट की दीवारें
पर आज चारों ओर से
ढहते हुए,
बन गईं हैं
संगैमरमर की शिलाएँ।

मेरे प्रभु,
यह कृपा थी आपकी,
पर बडी निर्दय।
---------------------------------

पाथेय से --हिंदीकरण

हिंदीकरण

हिंद महासागरमें
मान्सून के कारखाने में
हिंदीकरण अब पूरा हुआ।
इसीलिए वहाँ से निकलनेवाले मेघ
हैं निकम्मे, रीते,
दशदिशा गर्जानेवाले,
पर बूँद भी ना बरसानेवाले॥
-------------------------------------
झ््र हिंदीकरण उ एक नया शब्द, जैसे ध्रुव से ध्रुवीकरण या निज से निजीकरण वैसे हिंद से हिंदीकरण
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पाथेय से --भरोसा

भरोसा

एक बार राशन सध गया
तो जुटाने लगा मैं कागज,
कबाडी के लिए,

वृत्तपत्र इकट्ठे किए ----
तुमने हँसकर पूछा,
ये आपकी कविताओं के
कागज भी डाल दूँ क्या ?
उतना ही वजन बढेगा।

मैंने कहा -- जो काम कल
करनेवाला है काल,
उसे तुम आज न करना।

तुमने आँखों से आँसू पोंछे
और कहा ---
मैं भी नही, और काल भी
ऐसा काम कभी करेगा नही।
-------------------------------------

पाथेय से --अंतिम विस्फोट

अंतिम विस्फोट

उस अंतिम विस्फोट के बाद
अशेष नही होगी केवल मानवजात
अशेष होंगे
ताजमहल और कैलास,
शेक्सपियर और कालीदास।

लाखों, अरबों वर्षों में
कण कण से,
क्षण क्षण से, जुडाये हुए
चाँद को छुआए हुए

ज्ञान विज्ञान के गगनगामी स्तंभ,
बुद्ध, येशु से महात्माओंने
कोटि कलेजों में बसाए हुए
करुणा के मंदिर,
सब कुछ -----

और पृथ्वी पर बचेगा शेष
एक विराट् ब्रह्मांड,
राख का दलदल का।

फिर कदाचित
धराव्यापी राखसे,
अदमित जीवितेच्छासे
फूट पडेगा कोई अंकुर हरे घासका।
दलदल में आरंभ होगा बिलबिलाना,
एक अमीबाका।

ऐसे होगा प्रारंभ
फिर नई उत्क्रांति के
प्रथम चरणका।
लाख शताब्दों के आदि का,
ब्रह्मचक्र के दूसरे भ्रमण का।
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पाथेय से -- अंबारी से लोक संग्रह

अंबारी से लोक संग्रह

अंबारी बडी अच्छी है,
हालाँकि उसमें बैठना बडा टेढा।
अंबारी अच्छी है,
इसलिए कि
इसके नीचे है हाथी।

जब वह निकल आता है
बाजारों में,
तो उमड पडती है भीड
हाथी के दर्शन को।
हो जाता है लोकसंग्रह,
अनायास।
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Saturday, August 6, 2011

किनारा से --सुना था कभी

सुना था कभी

सुना था कभी कुछ इस तरह ---
असीम, अनंत
विश्र्व का आंगन
फिरे पृथ्वी नामक
छोटा सा ये कण।

उसमें है एशिया,
उसमें एक भारत है,
उसके एक शहर में
छोटा एक घर है।

उसके एक कोने में
रहता है कोई मैं,
ऐसी है क्षुद्रता
जिसका ना पार है।

छप्पर के कोने में
एख जाल बुनकर
रहती है मकडी
क्षुद्र कीट खाकर।

संसार नीति
चलती है ऐसी
फिर भी अहंता
भरी है कैसी।

किन्तु फिर सोचा क्या यही सच है ---
क्षुद्र हो देह पर
उसमें है चेतना
जिससे इस विश्र्व का
सुफल हो जानना।

कांच का एक गोला
उसमें बारीक तार
फैला सकता प्रकाश
रात भर, आरपार।

ऐसी ही मेरी
देह की बाती
अज्ञान भेद कर
ज्ञान देख पाती।

अब ना कोई
अलगता बची है
जो भी अनंत है
कण भी वही है।

घाटी में गूँजा
जो हवा का गीत
आकाशगंगा में
तारों की प्रीत।

वैभव वसंत का
और उदार वर्षा
लता पर खिले फूल
केशर सी उषा।

प्रेरणा इन्हीं से
सृष्टि में भरती
जीवन की लालसा
अंतर में झरती।

वही तेज जीवन का
दान मिला मुझको
क्षुद्र कैसे कहूँ
असीम कहूँ इसको।
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किनारा से --पग चिह्न

पग चिह्न

मैंने एक रात ये नक्षत्रों से पूछा,
परमेश्र्वर नही है यही अबतक सोचा
पर तुम तो चिरंतन विश्र्व के प्रवासी,
तुम्हीं कहो क्या उसको कभी तुमने देखा ?

स्मित हास्य कर बोले कुछ सितारे मुछसे
वह मुक्त प्रवासी, चले निरंतर गति से
तिमिर पर उभरते उसके जो पगचिह्न,
पूछते प्रमाण तुम उन्हीं चिह्नों से?
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किनारा से --किनारा

किनारा

यह कविदा कोलम्बसकी अमरिका-खोज को इंगित करती है।
लो आया किनारा
तट पे है गूँजा नाविकों का इशारा
लो आया किनारा।

उन्मत्त तूफानी सागर विकराल
उतारी थी नौका, ताने थे पाल,
किया अनसुना भीरुओंका पुकारा,
लो आया किनारा।

वो संग्राम अब पूर्ण होने चला,
युगों की तपस्या की है सिद्धता,
वीरोंके श्रमने है जिसको निखारा
लो आया किनारा।

तट पे हैं झिलमिल पंक्तियाँ दीप की,
शलाका लाल पीली या नीलाभ की,
तमपे है खिलता जैसे अंगारा
लो आया किनारा।

इस एक क्षण की थी की हमने आस
इसीसे हुआ सिद्ध नौका प्रवास,
आये हैं वापस जग जीत सारा,
लो आया किनारा।

जो बिछडे हैं संगी उनको प्रणाम,
उनकी स्मृति रह न जाए अनाम
जयध्वज चढाओ तट पर हमारा
लो आया किनारा।
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किनारा से --कमी

कमी

बैठा है श्र्वान ऊँची कुर्सी पर
सर पे सुशोभित है पगडी
पैरों में बाली बजे है चाँदी की
कंठ में हीरे की माला पडी।

बनी वेषभूषा ऐसी समर्पक
काला है कोट और पतलून लाल
राजस है मुद्रा, नजरें भी राजस,
उतरी खरी राजसी चालढाल।

भौंके कभी पर नही वो अचानक
है गुण ये उच्चासनों का सभी
कभी नाक फैली कभी कान ऊपर,
अभी आँख खोली थीं, बंद है अभी।

हा हन्त बाकी रहा न्यून एक
कमी यह मिटाए से मिटती नही
हिलती रहे पूँछ दासता भाव से
राजसी वेष में भी ये अँटती नही।
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महावृक्ष से --वे भी आदमी हैं

वे भी आदमी हैं

वे भी आदमी हैं
पर झुण्ड में गिनानेवाले,
झुण्ड में ही ममरनेवाले,
उनका जीवन, मरण
निराशय, निराकार

पिंडकी विभिन्नता
पुँछ गई पूरी तरह,
देखिए उदाहरण स्वरूप,
गॅस्ट्रोसे तीनसौ मरे,
बाढ में चारसौ बहे,
दो जमातों के झगडे में
आज पाँच सौ गये
इत्यादि इत्यादि।

यहाँ आदमी का
नही है महत्व,
महत्व है गॅस्ट्रोका,
बाढ का, दंगों का।

संख्यात्मक जीवन और
संख्यात्मक मरण।
जीवन और मृत्यु,
दोनों ही अलक्षित, निरर्थक।

पर एक चतुराई उन्होंने करी,
बजाए मरने के
कॅन्सर या टयूमर से,
उन्होंने मौत ली
गॅस्ट्रोकी, दंगों की।

इसीलिए आज,
आदमी नहीं, पर
उनकी संख्या तो
हमें मालूम हो गई।
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महावृक्ष से --वंदे -- एक नाटय-प्रसंग

वंदे -- एक नाटय-प्रसंग

स्थल--
शहर के बीचोबीच
शानदार कूडे का ढेर,
तस्करों के धन जैसा
चहुँ ओर से फूलता फैलता।
और
अपनेपन से भर कर,
रास्ते पर अतिक्रमण
करता हुआ बारामदा
सामने के घर का।

पात्र--
कूडे को बिखेरकर
अन्न कण जुटानेवाला
चिंदी - चिंदी कपडोंवाला
पाँच सात बरस का
कार्यमग्न छोकरा,
और दूसरा मैं,
यह असंस्कृत दृश्य
सामने के बारामदे से
दुखभरी निगाह से
देखनेवाला।

प्रस्ताव--
मैंने दिलदार होकर
छोकरे को बारामदे में बुलाया
करने को सांस्कृतिक उन्नयन
पढाई का प्रस्ताव किया
आओ आरंभ करें अपने देश से,
कहो, वंदे मातरम्।

परिणति--

बडा चमत्कार हुआ,
वह छोकरा धुएँ के बादल सा
आकाश तक पसर गया
और उस ऊँचाई से
दिशाओं को झकझोरता हुआ बोला
वंदे भाकरम्॥
---------------------------------------------

महावृक्ष से --तुकया की राह

तुकया की राह

तुकया की राह
जाने एक तुकया
वेदार्थ के गाँव
जाये जो॥

तुकया का मन
जाने एक तुकया
तूफानों के झुण्ड
पचाये जो॥

तुकया ही जाने
तुकया का मान
विट्ठल को भी
फटकारे जो॥

एक इंन्द्रायणी जाने
तुकया को थोडा
अभंगों की बही
लौटाये जो॥
---------------------------------------

महावृक्ष से --तुका

तुका

जंगलों ने दिए
थोडे दावानल,
लहरों का उछाल,
सागरोंने।

तारोंने जताई
अंधेरे की सीमा,
निर्झरों का गाना,
पहाडोंने।

कार्तिक चंद्रमा ने
माधुरी का ヒााव,
बिजली का तांडव,
आषाढने।

श्मशानों ने दी
चिता की तपन,
भेंट दे गगन,
नीलता की।

दुनियाँ ने दिया,
बनिए का कर्म,
तौलता हे धर्म,
तराजू में।

तुका को क्या लेना
ऐसे संचितों से,
जब विठोबा से
चित्त लागा॥
-------------------------

महावृक्ष से -- ऋण तेरे दीप का

ऋण तेरे दीप का

खोलकर द्वार,
दीप लिए हाथ,
हे उदारमना,
तुम देहरी पर खडे।

तिमिरांध रात,
राह में प्रकाश,
ऋण तेरे दीप का
सदा मेरे माथे॥
---------------------------------
--------

महावृक्ष से -- रहिवासी

रहिवासी

रहिवासी तो हैं ही हम,
गली, मुहल्ले, गाँव के,
और अपने प्रांत के,
और अपने देश के,

लेकिन यह याद रहे
कि रहिवासी भी हैं हम,
सौर मंडल में
पृथ्वी नामक ग्रह के

और वह ग्रह भी
जहाँ बालू-कण जैसा,
क्षुद्र,
उस असीमित विश्र्व के।
-----------------------------------

महावृक्ष से --पुकारा है तुमने

पुकारा है तुमने

पर्जन्य के पानी से,
जंगलों के गान से,
पुकारा है तुमने,
मैंने सुना नही।

अरुण के प्रकाश में,
नक्षत्रों के आकाश में,
प्रगटा तेरा रूप,
मैंने देखा नहीं।

दुखियों की वेदना में,
सज्जानों की साधना में,
सीमाहीन घर तुम्हारा,
मैंने जाना नही।
-----------------------------------

महावृक्ष से -- मुखौटा

मुखौटा

एक दुख को
असह्य हुआ अपना दुखडा।
बाजार से खरीद लाया
एक मुखौटा
आनंद का।

वही चढाकर गया
आनंद की महफिल में।
थोडे संकोच के बाद
जब देखा सबको सूक्ष्मता से,
पाया हर चेहरे पर
वही मुखौटा,
उसी दुकान से खरीदा हुआ।
------------------------------------------

महावृक्ष से -- मेहमान

मेहमान

अंधेरे के घर में
प्रकाश बना मेहमान,
क्या हो आदान - प्रदान,
जाने न कोई।

दें, गर आलिंगन,
गलती हैं दोनों देह,
स्पर्श हो असह्य,
परस्परों का।

भाषा भी भिन्न यहाँ
कैसा कुशल मंगल,
खडे अशब्द अचल,
रखकर दूरी।

आखिर उठ चला प्रकाश,
सुझाया जाते जाते,
मिलन बेला तय करें,
भोर और गोधूली।
-------------------------

महावृक्ष से -- कली का हक

कली का हक

हर कली को जन्मसिद्ध हक है चटखने का।
माटी से मिली विरासत को गगनपटल पर लिखने का॥

खिले शाही उद्यानों में, या मरुभूमि में उजाड
पर हर कली को हक है, फूल बन कर खिलने का॥

हो गुलाब या कमल कली हो, या नाली पर खिली कली
बाट जोहता होता उसकी प्रकाश कण एक सूरज का॥

हर कली में जिवन्त है दृढ निश्चय पुष्पित होने का
नखरे नाज दिखाने का, औ' सुगंध बरसाने का॥
----------------------------------------------------------

महावृक्ष से -- हास्यास्पद

हास्यास्पद

मरते हैं सभी आदमी,
पर वृत्तपत्रों तक पहुँचनेवाले,
ज्यादा नहीं।

वृत्तपत्रों तक पहुँचनेवाले,
मरते नहीं हैं ---
वे होते हैं दिवंगत,
या होता है उनका निधन।

वे देववाणी में होते हैं दिवंगत,
जबकि सामान्य जन
प्राकृत वाणी में
मर जाते हैं।

आज या कल, मैं भी शायद
दिवंगत हूँगा,
मरूँगा नहीं।
उतनी कमाई गाँठ में
जरूर है।

कम-से-कम, दो काँलमों का शीर्षक
मैं तो छेकूँगा,
अलावा, कुछ लेख, कुछ संस्मरण।

और यदि फूटें न हों बम,
हुए न हों दंगे,
मंदिर, मस्जिद और शेयर बाजार
सुरक्षित हों,
तो पा ही जाऊँगा ----
एकाध संपादकीय भी।

और शोकसभा ?
हाँ, वह भी !
अप्रस्तुत, विसंगत भाषणों भरी,
ऊबे हुए श्रोता,
जो अंत आने तक थक भी चुके होंगे,

जम्हाई को छिपाते हुए,
खडे हो जाएँगे दो मिनट,
सबकी व्याकुल निगाहें टिकी होंगी अध्यक्ष पर,
कि कब वे बैठेंगे।

कुल मिलाकर ---
जीवन की गंभीर कथा को
शाप हास्यास्पद मरने का,
कर्पूर पुतला कोटि कणों का
क्षण में होगा भक्ष्य चिता का।
---------------------------------------------

महावृक्ष से -- धर्म और भगवान्

धर्म और भगवान्

धर्म का भगवान् होता है,
पर भगवान् का धर्म नही होता
इसीलिए
भगवान् है धर्मसे उस पार
धर्म है भगवान् से इस पार।

अपनी अपनी पोथी में
धर्म को बंदी बनानेवाले
दर्शन करते हैं आकाश-गंगा का
अपने अपने आंगन के
चुल्लू भर पानी में।
-------------------------------------

महावृक्ष से -- छुरों का गाँव

छुरों का गाँव

छुरों ने कब्जा किया वह गाँव,
अब वहाँ आदमी बचा ही नही।

सारी बस्ती बस छुरों की।
बाल छुरे, तरुण छुरे, वृद्ध छुरे,
नर छुरे और मादा छुरे।
उनकी संतान भी
छुरों की।

घर में छुरे, रास्तों में छुरे, बाजारों में छुरे,
मंदिर में भी, मधुशाला में भी छुरे।

गाँव की सीमा पर
मानव-रक्त-रंजित
टंगा है एक लाल झंडा,
और चौराहे पर विशाल पुतला,
एक ऐतिहासिक छुरे का।

पुतले के नीचे,
चौथरे पर बैठे,
वृद्ध छुरा कथा कहे
अपने पराक्रम की,
कहाँ, कैसे मारे उन मानवों की।

बाल छुरे पूछते हैं जलते अंगार से,
बाबा, यहाँ तो
आदमी सारे तमाम हुए
अब कहाँ दिखायें हम अपना पराक्रम ?

वृद्ध छुरे ने कहा, मेरे बच्चों,
जिनके पाँव घुसे रहें घर के अंदर
उनका क्या पराक्रम
जाओ, बाहर की दुनियाँ में जाओ,
वहाँ होंगे करोडों मानव,
और उनकी मानवता कुतरनेवाले
असंख्य चूहे भी।

जाओ, उन चूहों से दोस्ती करो,
वही बनेंगे पथदर्शक और तारणहार,
करने से देशाटन,
लाखों मिलें आदमी मारने को,
पनपेंगे चूहे भी असंख्य
गाँव गाँव में तुम्हे तारने को।
------------

महावृक्ष से -- बहन कोकिला

बहन कोकिला

बहन कोकिला
आज आम पर
आ जाना।
एक रात भर
इस डाली पर
रह जाना।

स्पर्श पंख का
और प्रेम का
रख जाना
भोर भये कल
गीत उषा का
गा जाना।

पवन साँझ से
सावधान है
कर रहा।
लिए कुल्हाडी
जंगल में
कोई फिर रहा।

सारे तने
जीर्ण वृक्षों के
गिन रहा।
इसी दिशा में
वार चलाने
आ रहा।
--------------------------------

महावृक्ष से --अनजाने

अनजाने

इस रास्ते के नीचे से
चलते हैं रेले अंगारों के
यह जाना ही न था।

आंगन से फूल चुनकर
सुगंधी सौंदर्य
दिशाओं में बिखेरता
चलता ही रहा मैं।

पता ही न चला
कब मेरे बिन जाने
रास्ते के वे अंगार
नीचे से पहुँचे
मेरी टोकरी में

और जगह ले ली
मेरे ओस-भींगे फूलों की
---------------------------------------

महावृक्ष से -- आलंबन

आलंबन

चलो मान लिया,
जब स्वयम् श्रीकृष्ण ने कहा,
'जो देखे मानव रूप में मुझे,
वह मूढ़ है।'
भगवन्, उन मूढों की सूची में
मेरा भी नाम है।

तुम निर्गुण, तुम निराकार,
विश्र्वात्मक तुम, अरूप, अपार।
जाने मेरी प्रज्ञा जाने,
मन ना माने।

मुझे चाहिए रूप तुम्हारा
सगुण साकार,
जो इन नयनों को दे पहचान,
दुर्बलता को धीरज बाँधे,
मन को दे जो आशास्थान।

विश्र्व की इस असीमता में,
मेरा जो एकाकीपन,
रूप तुम्हारा बना रहे मेरा आलंबन।

हाँ, मूढों की सूची में
नाम मेरा भी है,
और साथ एक सांत्वन,
जिस अर्जुन के लिए सुनाई गीता तुमने,
सूची में है उस अर्जुन का
अग्रक्रम।
----------------------------

महावृक्ष से -- आदेश

आदेश

आओ बैठें,
रोना तो लगा है रोज ही
पर आज तो
थोडा हँसें।

अंधेरे का कीर्तन
भूल जायें थोडी देर
हृदय पर लगा लें
उजाले के छापे।

तेरे मेरे जीने के
परात्पर जो स्वामी
उन विश्र्वेश्र्वर सूर्य के
आदेश हैं ऐसे।
-------------

वादळवेल से --ऐसे भी क्षण

ऐसे भी क्षण

आखिर मेरा जीवन यानी सोच है मेरी
तम भी मेरा, दीप भी मेरा, जलन भी मेरी।

परंतु ऐसे भी क्षण आते
लाख खिडकियाँ हैं खुल जातीं,
समेटता हूँ रास्ते पर से,
प्रकाश थोडा, थोडी माटी।

और लौट कर उसी गुफा में फिर से जलना।
उसी ज्वलन में ज्ञान - सोच का फिर से खिलना।
--------------

वादळवेल से --उपमा

उपमा

मैंने कहा था,
चाँद है पुराना,
क्यों वही उपमा
दूँ मैं बार बार।

लेकिन भर गया चाँद
तुझमें कुछ ऐसे,
उपमा कोई दूसरी
गुनाह हो जैसे।
------

वादळवेल से --शर्त

शर्त

शर्त है एक ही
बिछडें जब रास्तें
पीछे मुडकर
देखना नही।

अलग राह लेकर
चलने लगें जब,
अगर या मगर
कहना नहीं।

बाँझ सपनों की
विषमय फुँकार लिए
कलेजे में साँप
पालना नहीं।

दिया तेरे हाथ का
किसी की भी खातिर
अँधेरे कुएँ में
डालना नहीं।
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वादळवेल से --पिशाच

पिशाच

निपट अंधेरी रात में
अपने ही अकेलेपन में
चूर मैं।
खटखटाया द्वार किसी ने
देखा चेहरा एक खडा था,
हूबहू मेरा।

घबराया मैं,
चिहुँक उठा मैं,
पूछा कौन, कौन चाहिए ?
आनेवाला
हँसकर बोला
पिशाच हूँ मैं तेरा।

भूतकाल की कबर
अंधियारी, सीलन भरी,
असह्य हो चली।
उठकर आया
तेरे ही पास
और जाऊँ भी कहाँ।

पिशाच था,
पर मेरा ही था
अपनापन तो होना ही था।
आवभगत की
अंदर लाया
बातें भी कीं।

कालचक्र की
दूरी को
कुछ सिमट सका मैं।
उधेड डालीं
कुछ परतें,
कुछ छिला हृदय।

विसंवाद में कभी
शेर की भाँति गरजा।
प्रेम, द्वेष, हास्य के स्मरण में
स्वर भी लरजा।

आखिर आई भोर,
उठ गया,
चला गया
हममें से एक।

छोड गया
शंका,
पूरी उमर के लिए।
कौन गया और
कौन रह गया
मैं या मेरा पिशाच ?
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वादळवेल से -- पंख बिजली का

पंख बिजली का

गुनी ग्यानी कहते हैं
पंख नही होते बिजली के,
मैं अज्ञानी, मैं ना जानूँ
नियम तुम्हारी सृष्टि के।

किन्तु एक दिन टूट पडा
नभ मेरे ऊपर
बरसे घनघोर घटा,
तूफान बवण्डर।

फिर कडकी बिजलियाँ
काल - पक्षी मंडराए
तांडव करता प्रलय
मेरा घर कौन बचाए।

हुआ शांत जब, फिरसे
गगन हँसा ममता से,
वहीं औचक यह पंख मिल गया
ईंटों के मलबे से।

मैं कहता यह पंख बिजली का
गुणीजन कहें चाहें जो भी
नभ हो क्रोधित कभी कभी पर
दान भी देता कुछ यों ही।
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वादळवेल से-- दुर्गारूप

दुर्गारूप

यह दुर्गामाता
जब रूप लेती रणरागिणि का,
तब भी उसके एक हाथ में
भरा होता है अमृत कलश,
वही आज है हाथ में
मेरी मातृभूमि के भी।

और बाकी सत्रह हाथों में
बलशाली अजिंक्य शस्त्र
करने असुरों का संहार
और रक्षा अमृत कलश की।

वही आज हैं ----
और सदैव होने चाहिए
मेरी मातृभूमि के भी।
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वादळवेल से -- अस्वीकार

अस्वीकार

भक्तों का जयघोष हो रहा
मंदिर को है रथ चला
पर पहिए में रक्त किसीका
लगा हुआ है।

माफ करना मेरे मित्रों,
जयघोष तुम करते रहो,
तुम्हारे मन जैसा,
मेरा मन नही जाता
मंदिर की ओर।

वह चला
रक्त की रेषा पकड कर
पीछे की ओर
पीछे की ओर।
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वादळवेल से -- असह्य

असह्य

माफ कीजिए मुझको
लेकिन सोच रहा हूँ
यह बच्चियाँ,
और बच्चे भी
मर ही जायें।

पंखों पर हो
थकन अपार
दम भरने को
कोई न ठौर
न कोई मीत।

दरिद्रता यह
और अपमान
कदम कदम पर
पिसती छाती।

निरालंब नभ की यात्रा में
बिना घोंसला
नन्हें पंछी
कब तक उड पायें?

फुरसत ही नही
कुछ हँस लेने की
नही अनुमति
रो लेने की।

जिंदा रहने की है सख्ती
किन्तु हाय उस
जिन्दगानी का
अर्थ न कोई।

केवल थकन
केवल घुटन
केवल रुदन
केवल पिसन
अन्यायों की
दीवारों में
गडते जाना।

ऐसे जीवन की बोझ बनी
चिंदियाँ उठाये
कब तक ये बच्चे
सहते जायें ?
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वादळवेल से -- अघटित

अघटित

आई भोर जब,
क्षितिजपार से
बुझने को
तत्पर हुआ
गलियारे का
कोई दिया।

तभी अचानक
नभसे बोला
कोई तारा
रुक जा तनिक,
स्नेह जरा सा
मुझे चाहिए तेरा।