Monday, August 8, 2011

मुक्तायन से -- याचक

याचक

एक था याचक
जिसका कटोरा
कभी नहीं भरता था।

नृपालों ने दिये
सिंहासन,
कुबेर ने डाले स्वर्ण भंडार,
फिर भी कटोरा खाली ही रहता था।

पंडितों ने शब्द दिए,
पुरोहितोंने दान-पुण्य,
साधुओंने सत्व डाला,
वीरोंने अविरत कर्म,
फिर भी कटोरे का तल दीखता था।

फिर याचक आया
एक भिखारिन के द्वार पर,
जहाँ उसका बच्चा
अधढँके स्तनों पर दूध पी रहा था।

याचक ने कहा
माई, दे दे कुछ भीख ---
माई ने वक्ष से
बच्चे को अलग किया.,
फूट रही धार से,
दो बूँद दूध का याचक को दान दिया।

लबालब भर चला
याचक का कटोरा,
अथाह सागरसा।

आज वही याचक,
कृतज्ञता में भरकर,
पृथ्वी पर सबको बाँट रहा है दुग्ध-कण।
इसी कारण,
हाँ इसी कारण,
इतना कुछ होकर भी
टिका हुआ है मानव जीवन।
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