Sunday, August 7, 2011

हिमरेषा से -- स्तंभ

स्तंभ

विशाल भारी इस खंभे का
सूक्ष्म काँपना, अभी आपने
देखा नही ?
कारागृह यह नरसिंहका,
ईंट चून का निर्जीव कोई
स्तंभ नहीं।

ऐसी ही थी वह संध्या भी,
ना दिन था ना रात चढी थी
राज भवन में,
पद प्रहार उन्मत्त हुआ तब
काल कृतांत ही मानों उदित
हुआ स्तंभ में।

कोमल करुणामय ईश्र्वरता,
श्र्वापद होकर ऐसी भयानक
जब आती है,
हिंヒा नखों से विदीर्ण करके
अन्यायी की देह, शांत
तब ही होती है।

जगह जगह जो आज स्तंभ ये
ईंट चून के या लोहे के,
फौलादों के।
सावधान अवतरण करेंगे
नारसिंह, परिमार्जन करने
अन्यायों के।
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