Sunday, August 7, 2011

हिमरेषा से -- यह चंद्र

यह चंद्र

उस चंद्र का इस चंद्र से
जरा भी नही नाता रिश्ता।
उस चंद्र पर
आते जाते हैं
कुत्ते, वानर, मानव,
बैठकर अंतरिक्ष- यानों पर,

लिए हाथ में यंत्र,
नापते पर्वत महाविशाल,
और जो धातु पा सकते,
और जो गाँव बसा सकते।

इस चंद्र के लिए
कोई भी राह नही निश्च्िात
ना निश्च्िात कोई ठिकाना,

कहने को यह भी
नभ का है दरबारी,
पर इसका राज चले,
सहヒा हृदयों पर
इंद्रजाल डालकर,
मन की गहन
गुफाओं में छिपकर।

चंचल बालक सा
कभी छिपा नीम के पीछे,
कभी पडा रहे रमणी के
पीन पयोधर नीचे।

कभी भग्न शिखर मंदिर पर,
बृहस्पति सा करता चिंतन,
कभी बावरा, नदी में गिरा,
काँपे थर थर पानी के संग।

कभी किले के
बुरुजों पर चौकसी
कभी पनघट पर
कीचड बीच फिसड्डी।

कभी थोडा सा
छप्पर अलग हटाकर,
चुपके से जम जाये
किसी खटिया पर

बलात् खोल कर पलक किसी की,
कमल नैन में घुस जाए,
प्रतिभाशाली किसी कवि को
गूढ विश्र्व के भेद बताए।

ऐसा बहुरूपी, नट, नटखट
और कलंदर
चंद्र छुपा है तेरे मेरे
मन के अंदर।
इस चंद्र का उस चंद्र से
कैसे हो कोई नाता रिश्ता ?

उस चंद्र पर
चढ जायेंगे शास्त्रज्ञ,
विज्ञानों की सीढी लगाकर
इस चंद्र को
पकड सकेगा कोई रसिक मन,
ताल, तलैया या नयनों में
केवल पलभर।
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