कुसुमाग्रजांचे इतर काही अपूर्ण अनुवाद
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हे कुसुमाग्रज, आप
वासी हो गगनों के
पर कृतार्थ कर रख्खी
माटी मराठी की।
-- वसंत बापट यांनी वाहिलेली श्रद्धांजली
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रे अनन्त है मेरी ध्येयासक्ति
और अनन्त है मेरी आशा
किनारा तुझ पामर के लिये
मुझ नाविक को दसों दिशा
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पंढरी के राय जी
हे त्रिलोकपाल जी,
क्या तेरी गत बनी
तेरे ही धाम में
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अमर्याद है मित्र तेरी महत्ता
मुझे ज्ञात मैं एक धूलीकण
पखारनेको फिर भी तुम्हारे चरण
ये धूली ही है मेरा आभूषण
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गोप
कौन फिरे गोप इस अपार चराई में
बाँसुरी की तान चढी गगन की उतराई में।
सुनकर संगीत नाद
झूमे धेनु मगन
अगणित आनंद लहरी मूर्त होतीं सघन
मिटे प्यास मिले छाँव आकाश की नदिया में
..................................
...................................
अपूर्ण
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मार्ग
चल रहा हूँ चल रहा हूँ
अंत चलने का नही है
चल रहा हूँ किधर क्योंकर
प्रश्न यह बाकी नही है।
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इसलिये छोडी है मैंने
आस भी अब मंजिलोंकी
श्रेय चलने का है केवल
धर्म अब दूजा नही है।
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अनुवादासाठी ठरवलेल्या इतर कविता
गुराखी (गोप)
उषासूक्त
खंत नाही तुला
इंदु-बिंदु ची कविता
चार कोळसेवाले
-
-
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Sunday, October 28, 2012
Friday, October 26, 2012
शिवबांच्या राज्यांत September 6, 2012
शिवबांच्या राज्यांत
शिवबांचे नांव जपत
शिवबांचा वारसा सांगत
दारु गाळतात कुणी कुणी
अन्नाची नासाडी करून
गरीबाचा घास पळवून
शिवबांचा वारसा सांगत
दारु गाळतात कुणी कुणी
अन्नाची नासाडी करून
गरीबाचा घास पळवून
अन् हाकारतात कोवळ्या कळ्यांना --
या बाळांनो या
फुकट पाजतो दारु ती प्या
बेधुंद होऊन नाचा
बिघडा बाळांनो बिघडा
उद्याचे आहांत तुम्ही मतदार
आमच्या राजभोगाचे
मावळ्यांनी नाही का आपली निष्ठा महाराजांच्या पदरांत टाकली
तुम्ही पण टाकाल तुमची मते आमच्याच पदरांत
खात्री आहे आम्हाला
रायरेश्वराच्या चरणी स्वराज्य-स्थापनेची शपथ घेणा-या शिवबांची शपथ
आमच्या राजसत्तेत तुम्हाला कधीच कमी पडू देणार नाही
अशा मद्यधुंद पार्ट्या
बिघडा बाळांनो बिघडा
तुमच्या बिघडण्यांतच दिसतो
या बाळांनो या
फुकट पाजतो दारु ती प्या
बेधुंद होऊन नाचा
बिघडा बाळांनो बिघडा
उद्याचे आहांत तुम्ही मतदार
आमच्या राजभोगाचे
मावळ्यांनी नाही का आपली निष्ठा महाराजांच्या पदरांत टाकली
तुम्ही पण टाकाल तुमची मते आमच्याच पदरांत
खात्री आहे आम्हाला
रायरेश्वराच्या चरणी स्वराज्य-स्थापनेची शपथ घेणा-या शिवबांची शपथ
आमच्या राजसत्तेत तुम्हाला कधीच कमी पडू देणार नाही
अशा मद्यधुंद पार्ट्या
बिघडा बाळांनो बिघडा
तुमच्या बिघडण्यांतच दिसतो
आम्हाला आमचा सुवर्णकाळ
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- You, Manohar Ahire, Jyoti D Patil, Chhaya Thorat and 58 others like this.
- साळसूद पाचोळा लिनाताई,.. खुप चिमटे काढनारी कविता.. धन्यवाद. शिवबांच्या राज्यातच नव्हे तर राजधानीत म्हटले तरी चालेल.
- Kavita Kshirsagar " Forgive those who insult you, attack you, belittle you or take you for granted...but more than this forgive yourself for allowing them to hurt you...!!! Good MOrning...!!! "
- Nitin Hande khup chhan leenatai........... maharajanche nav ghyayacha hakk sarva rajkiy pakshyanni kadhich gamavlay.
वेडात दौडले वीर मराठे सात बद्दल September 5, 2012
Leena Mehendale shared a link.
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वेडात दौडले वीर मराठे सात या कुसुमाग्रजांच्या कवितेचा नितान्तसुंदर अनुवाद नागपुरच्या तुषार जोशी यांनी केल्याचं माहित होते. एकदा ईमेल्सवरून आम्हीं त्याबद्दल थोडसं बोललो होतो. कारण मी कुसुमाग्रजांचा अनुवाद करताना हिचा अनुवाद मला नाही जमणार --
करू दे कुण्या जास्त प्रतिभावंताला -- असं म्हणून सोडून दिला होता.
वीर मराठे दौडे सात दिवाने -- सुंदर चाल व गायन आत्ताच महाराष्ट्र हिंदी अकादमी च्या साइट वर ऐकले . अभिनंदन . खूप छान जमून आले आहे. अत्यंत श्रवणीय. .http://www.maharashtrahindi.org/#
वीर मराठे दौडे सात दिवाने -- सुंदर चाल व गायन आत्ताच महाराष्ट्र हिंदी अकादमी च्या साइट वर ऐकले . अभिनंदन . खूप छान जमून आले आहे. अत्यंत श्रवणीय. .http://www.maharashtrahindi.org/#
- You, Mukesh Somaiya, Bahubali Nilakhe, Rajesh Mandore and 13 otherslike this.
- Tushar Joshi धन्यवाद!
फारच नवा प्रयत्न आहे तो. ऑफबीट गायन झाले आहे. आवाज छान आहे अनुवाद त्याच मीटर मधे आहे पण संगीत संयोजनाचा फार अनुभव नसल्याने रेकार्डींग नीट जमलेले नाही. हे हौशी पद्धतीने केल्याने घरी केलेले आहे.
आता सुबोध खूप सुंदर कंपोझींग करतो तो त्याचाही नवा प्रयत्न होता.
उषःकाल जरा अधिक बरे झाले आहे असे मला तरी वाटते - Pramod Arvind Bhatt · 2 mutual friendswedat marathi veer dodale saat! 1 sakhar, 2 sahakari sanstha, 3 ZP, 4 kolsaa, 5 Vyajkhau sawkari, 6 aatmahattya, 7 jaanta Raaja.
Monday, October 22, 2012
योग-मंत्र
योग-मंत्र
(२००३-०४ में कभी)
उन दिनों मैं पीसीआरए में कार्यरत थी। गीता का संदेश -- योगः कर्मसु कौशलम् -- इसे ऊर्जा बचत के साथ जोडकर आस्था चॅनेल पर डालने के लिये एक सीरीयल के निर्माण की योजना हमारे कार्यालय ने बनाई क्यों कि कर्म-कुशलतासे ही ऊर्जा-बचत होती है। इस सीरीयल के लिये हम शीर्ष-गीत ढूँढ रहे थे।
मेरे प्रिय गायक पंडित जसराज का गाया राग कलावती मेरी अतिप्रिय श्रवण-श्रृंखला में है। इसके प्रारंभ में जो मंगल-स्तवन उन्होंने गाया है -- मंगल् भगवान विष्णुः मंगलं गरुडध्वजः..... वह कई कई दिनों तक मुझे हॉण्ट करता रहता है। जब भगवद्गीता का संदेश लेकर सीरीयल बनानेकी बात चली तब वही धुन मेरे मन में फिर प्रकट हुई और पहली पंक्ति बनी -- कर्म में हो कुशलता -- जोकि ठीक मंगल् भगवान विष्णुः की जगह फिट बैठती थी।
फिर चिन्तन करते करते अन्य ३ पंक्तियाँ भी रची गईं और हमारा शीर्ष गीत बन गया। हमारे प्रोड्यूसरने इसे श्री वाडेकरसे गवाया है जो ठीक -ठीक उसी धुन में तो नही पर बेहद श्रवणीय है।
इस सीरीयल के लिये पूरा गीता-पाठ मेरे पिताजी ने किया था । वह अब यू-ट्यूब पर उपलब्ध है। उसके प्रारंभ में मैंने यह शीर्ष गीत भी जोड दिया है।
कर्म में हो कुशलता
चित्त में समदर्शिता
बुद्धि में स्थितप्रज्ञता हो
पार्थ ये ही योग है।
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(२००३-०४ में कभी)
उन दिनों मैं पीसीआरए में कार्यरत थी। गीता का संदेश -- योगः कर्मसु कौशलम् -- इसे ऊर्जा बचत के साथ जोडकर आस्था चॅनेल पर डालने के लिये एक सीरीयल के निर्माण की योजना हमारे कार्यालय ने बनाई क्यों कि कर्म-कुशलतासे ही ऊर्जा-बचत होती है। इस सीरीयल के लिये हम शीर्ष-गीत ढूँढ रहे थे।
मेरे प्रिय गायक पंडित जसराज का गाया राग कलावती मेरी अतिप्रिय श्रवण-श्रृंखला में है। इसके प्रारंभ में जो मंगल-स्तवन उन्होंने गाया है -- मंगल् भगवान विष्णुः मंगलं गरुडध्वजः..... वह कई कई दिनों तक मुझे हॉण्ट करता रहता है। जब भगवद्गीता का संदेश लेकर सीरीयल बनानेकी बात चली तब वही धुन मेरे मन में फिर प्रकट हुई और पहली पंक्ति बनी -- कर्म में हो कुशलता -- जोकि ठीक मंगल् भगवान विष्णुः की जगह फिट बैठती थी।
फिर चिन्तन करते करते अन्य ३ पंक्तियाँ भी रची गईं और हमारा शीर्ष गीत बन गया। हमारे प्रोड्यूसरने इसे श्री वाडेकरसे गवाया है जो ठीक -ठीक उसी धुन में तो नही पर बेहद श्रवणीय है।
इस सीरीयल के लिये पूरा गीता-पाठ मेरे पिताजी ने किया था । वह अब यू-ट्यूब पर उपलब्ध है। उसके प्रारंभ में मैंने यह शीर्ष गीत भी जोड दिया है।
कर्म में हो कुशलता
चित्त में समदर्शिता
बुद्धि में स्थितप्रज्ञता हो
पार्थ ये ही योग है।
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Sunday, October 21, 2012
देशकी ताकत (खेमका के बहाने)
देशकी ताकत
चाहे कर दो अंधेरा हजार दिवारोंसे,
एक छोटी लौ काफी है अंधेरा मिटानेको ।
चाहे ढँक लो अपनी करतूतें हजार परदोंमें,
एक तेज वार काफी है उन्हें टर्रारा फाडनेको।
जमा ली पूरी सेना विराटकी गायें हडपनेको,
एक अर्जुन काफी था उन्हें छुडानेको।
हडप लो देशकी मिट्टी-जमीं दामादके नातेसे,
एक म्यूटेशन-रिवर्सल काफी है देशकी ताकत जगानेको।
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चाहे कर दो अंधेरा हजार दिवारोंसे,
एक छोटी लौ काफी है अंधेरा मिटानेको ।
चाहे ढँक लो अपनी करतूतें हजार परदोंमें,
एक तेज वार काफी है उन्हें टर्रारा फाडनेको।
जमा ली पूरी सेना विराटकी गायें हडपनेको,
एक अर्जुन काफी था उन्हें छुडानेको।
हडप लो देशकी मिट्टी-जमीं दामादके नातेसे,
एक म्यूटेशन-रिवर्सल काफी है देशकी ताकत जगानेको।
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मैं डर गया
मैं डर गया
some time in 2004
published in Akshar-Parv Raipur
some time in 2004
published in Akshar-Parv Raipur
मेरा कसूर क्या
है,
फैसला तुम ही
कर लो
तुम्हें उन
पलों का वास्ता
जो मैंने अपने
आपसे चुराकर
तुम्हारी झोली
में डाल दिये।
मेरी जिन्दगी
में तुम आए, बुलाया मैंने नही था,
मेरे शहर में
तुम आए, बुलाया मैंने नही था,
मेरे दिल पर तुम
छाए, बुलाया मैंने नही था
तुम्हारा आना,
जैसे बेल पर चटखी
पहली कली
जैसे आषाढ की
पहली फुहार,
जैसे दूब पर
पहली ओस,
जैसा साँझका
पहला तारा,
जैसे भोरकी
पहली किरण
जैसे वसन्तकी
पहली बयार ।
बस एक पल,
उसे पूरी
जिन्दगी न बनाओ ।
बसन्ती बयार,
तुम्हें नाचने
घूमने के सिवा क्या करना आता है
क्यों दस्तक
देती हो बारबार मेरी ए.सी. कमरेकी खिडकी में
मेरी रातें, मेरे दिन, मेरी साँझें, मेरी
सुबहें,
बनाई हैं ए.सी.
की ठंण्डी साँसों ने
ये खिडकियाँ,
ये चौखटें, खुलना ठीक नही।
तुम आए मेरे
मेहमान,
अपनी धूप, धूल,
जंगली सुगन्धियाँ लिये
बुलाया मैंने
नही था
पर छोड नही
पाता तुम्हारे एहसास को
जब खटखटाती है बसन्ती
बयार मेरी खिडकी को
लालायित हो
उठता हूँ,
जाऊँगा, खोलूँगा
ये खिडकी किसी दिन ।
लेकिन तुम क्या
जानो मेरे मेहमान
ए.सी. कमरे, ठण्डा
सुकून,
जिन्दगी यही
है,
खिडकी खोलने
में नही ।
आज फिर आया
तुम्हारा एहसास,
कहना चाहा कि
खोलूँगा खिडकी,
मगर मैं डर
गया, मैं रुक गया।
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मैं, तुम और हम
मैं, तुम और हम
वर्ष 2000 के आसपास कभी
अक्षरपर्व रायपुर मासिक में प्रकाशित -- 2006 में कभी
कभी रास्ते पर चलते हुए
मिल गए मैं और तुम
चलते रहे...
मिलते रहे
अचानक देखा
दोनोंके बीच खडा था
" हम "
कुछ तुम्हारा हिस्सा,
कुछ मेरा,
कुछ तुमने सँवारा उसे,
कुछ मैंने
" हम " बढता चला
कुछ चुराकर तुमसे तुम्हें,
कुछ चुराकर मुझसे मुझे,
तुम्हारा दिल,
तुम्हारा वक्त,
तुम्हारी सोच,
तुम्हारे सपने,
कुछ मेरा भी दिल,
मेरा भी वक्त,
मेरी भी सोच,
मेरे भी सपने,
हम कितना खुश थे,
साझे में
कुछ तुमने भुला दिया तुम्हें,
कुछ मैंने भुला दिया मुझे,
और पाला एक एहसास " हम " का
अधमुँदी आँखों में साझेके सपनों का
वक्त बहता रहा
आँखें खुलने लगीं
अचानक मैंने पूछा " मैं कहाँ हूँ ? "
और तुमने पूछा " तुम कहाँ हो ? "
तुम्हारे और मेरे बीच
क्यों है यह "हम" ?
कौन है ?
कहाँ से आया ?
क्यों इसे मैंने गँवारा किया
मुझे ही भुलाकर ?
क्यों इसे तुमने गँवारा किया
तुम्हें भी भुलाकर ?
यदि यह "हम" रहा
तो मेरा क्या होगा ?
और तुम्हारा क्या होगा ?
चलो इसे यहीं पर छोड कर चल दें
तुम्हारे रास्ते पर तुम
तुम्हारी मस्ती में
मेरे रास्ते पर मैं
मेरी मस्ती में।
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वर्ष 2000 के आसपास कभी
अक्षरपर्व रायपुर मासिक में प्रकाशित -- 2006 में कभी
कभी रास्ते पर चलते हुए
मिल गए मैं और तुम
चलते रहे...
मिलते रहे
अचानक देखा
दोनोंके बीच खडा था
" हम "
कुछ तुम्हारा हिस्सा,
कुछ मेरा,
कुछ तुमने सँवारा उसे,
कुछ मैंने
" हम " बढता चला
कुछ चुराकर तुमसे तुम्हें,
कुछ चुराकर मुझसे मुझे,
तुम्हारा दिल,
तुम्हारा वक्त,
तुम्हारी सोच,
तुम्हारे सपने,
कुछ मेरा भी दिल,
मेरा भी वक्त,
मेरी भी सोच,
मेरे भी सपने,
हम कितना खुश थे,
साझे में
कुछ तुमने भुला दिया तुम्हें,
कुछ मैंने भुला दिया मुझे,
और पाला एक एहसास " हम " का
अधमुँदी आँखों में साझेके सपनों का
वक्त बहता रहा
आँखें खुलने लगीं
अचानक मैंने पूछा " मैं कहाँ हूँ ? "
और तुमने पूछा " तुम कहाँ हो ? "
तुम्हारे और मेरे बीच
क्यों है यह "हम" ?
कौन है ?
कहाँ से आया ?
क्यों इसे मैंने गँवारा किया
मुझे ही भुलाकर ?
क्यों इसे तुमने गँवारा किया
तुम्हें भी भुलाकर ?
यदि यह "हम" रहा
तो मेरा क्या होगा ?
और तुम्हारा क्या होगा ?
चलो इसे यहीं पर छोड कर चल दें
तुम्हारे रास्ते पर तुम
तुम्हारी मस्ती में
मेरे रास्ते पर मैं
मेरी मस्ती में।
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दौड
दौड
( १९८० में किसी दिन)
published in Akshar-Parv Raipur
सूरज, तुमसे वादा था --
फिर एक दौड का
वैसी ही जैसी कल
लगाई थी मैंने तुम्हारे साथ
या तुमने मेरे साथ?
अजन्तासे औरंगाबाद के सफर में,
जहाँ खतम होते चले गये
घुमावदार घाट
और सिलसिला शुरू हुआ
सह्याद्री- शिखर के
सपाट पठारों का--
जहाँ ऊँचाई पर मैं
अपनी कारकी गतिको
बढावा देने मैं मस्त
और नीचे वादियों में तुम
अस्ताचल की ऊर्ध्वाधर दिशा भूलकर
दौड लगाते मेरे साथ
तब तय किया था।
लेकिन आज जब माकू
अपने पोंपले मुँह में
नये नवेले निकले दो दाँतोंको
दिखाता हुआ हँस दिया
तो लगा जैसे
उसी नटखटपनेसे
तुमने कहा हो --
देखो, मैं जीत गया ।
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( १९८० में किसी दिन)
published in Akshar-Parv Raipur
सूरज, तुमसे वादा था --
फिर एक दौड का
वैसी ही जैसी कल
लगाई थी मैंने तुम्हारे साथ
या तुमने मेरे साथ?
अजन्तासे औरंगाबाद के सफर में,
जहाँ खतम होते चले गये
घुमावदार घाट
और सिलसिला शुरू हुआ
सह्याद्री- शिखर के
सपाट पठारों का--
जहाँ ऊँचाई पर मैं
अपनी कारकी गतिको
बढावा देने मैं मस्त
और नीचे वादियों में तुम
अस्ताचल की ऊर्ध्वाधर दिशा भूलकर
दौड लगाते मेरे साथ
तब तय किया था।
लेकिन आज जब माकू
अपने पोंपले मुँह में
नये नवेले निकले दो दाँतोंको
दिखाता हुआ हँस दिया
तो लगा जैसे
उसी नटखटपनेसे
तुमने कहा हो --
देखो, मैं जीत गया ।
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रेशम कोष
रेशम कोष
-- लीना मेहेंदळे
1988 में कभी
published in Akshar-Parv Raipur
1986-88 के दौरान मैंने रेशम उद्योग की काफी पढाई की थी और महाराष्ट्रमें बेरोजगारी दूर करने के लिये रेशम संबंधित कई योजनाओंका प्रारूप बनाकर वरिष्ठ अधिकारियोंको पेश की । हर योजना में मैंने लीकसे हटकर कोई सुझाव दिया होता था जो जमीनी हालातोंके अनुरूप होता था। और हर बार यही सुनना पडता -- "परन्तु यह बात उस स्कीम में नही बैठती, उस स्कीमसे बाहर हम कैसे जायेंगे?"
जब कुछ भी न कर पाई तो खीज कर यह कविता लिख डाली --
रेशम का एक कोष
अपने इर्द-गिर्द बुन लेना
हम सबने सीखा होता है
रेशम के कीडेसे।
फिर ये कहना कितना सहज है
"कि हमारी असफलताएँ,
हमारे कारण नही
बल्कि इस कोष की
फिसलनभरी दीवार के कारण है
हमें रहना पडता है
इन दीवारोंकी मर्यादा में
दीवार चटख न जाये,
मर्यादा टूट न जाये"
कोष के रेशमी बंधनोंका मोह
तोडना आया है
केवल उस कीडेको
जिसके पंखोंके उडनेकी ललक
नही रोक पायेगी कोई दीवार
बन जायेगा वह एक तितली
करनेको जीवन-चक्रके
दूसरे पर्व की शुरुआत।
हम और आप पडे रहेंगे
अपनी ही गढी
सच्ची झूठी
चमकीली सुनहरी
फिसलनभरी दीवारों को भीतर
सहलाते हुए अपनी अकर्मण्यता,
कि क्या करें,
यह दीवारें
कुछ करने नही देतीं।
--------------------------------------------------------------------
-- लीना मेहेंदळे
1988 में कभी
published in Akshar-Parv Raipur
1986-88 के दौरान मैंने रेशम उद्योग की काफी पढाई की थी और महाराष्ट्रमें बेरोजगारी दूर करने के लिये रेशम संबंधित कई योजनाओंका प्रारूप बनाकर वरिष्ठ अधिकारियोंको पेश की । हर योजना में मैंने लीकसे हटकर कोई सुझाव दिया होता था जो जमीनी हालातोंके अनुरूप होता था। और हर बार यही सुनना पडता -- "परन्तु यह बात उस स्कीम में नही बैठती, उस स्कीमसे बाहर हम कैसे जायेंगे?"
जब कुछ भी न कर पाई तो खीज कर यह कविता लिख डाली --
रेशम का एक कोष
अपने इर्द-गिर्द बुन लेना
हम सबने सीखा होता है
रेशम के कीडेसे।
फिर ये कहना कितना सहज है
"कि हमारी असफलताएँ,
हमारे कारण नही
बल्कि इस कोष की
फिसलनभरी दीवार के कारण है
हमें रहना पडता है
इन दीवारोंकी मर्यादा में
दीवार चटख न जाये,
मर्यादा टूट न जाये"
कोष के रेशमी बंधनोंका मोह
तोडना आया है
केवल उस कीडेको
जिसके पंखोंके उडनेकी ललक
नही रोक पायेगी कोई दीवार
बन जायेगा वह एक तितली
करनेको जीवन-चक्रके
दूसरे पर्व की शुरुआत।
हम और आप पडे रहेंगे
अपनी ही गढी
सच्ची झूठी
चमकीली सुनहरी
फिसलनभरी दीवारों को भीतर
सहलाते हुए अपनी अकर्मण्यता,
कि क्या करें,
यह दीवारें
कुछ करने नही देतीं।
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नंद चतुर्वेदी 7 कविताओंका मराठी अनुवाद चांभाराची हत्या
चांभाराची हत्या
तुझ्याबाबत मी कितीक विचार करतो
तुझ्या बाजूने उभं रहाण्याबाबत
ब्राह्मणवादाविरुद्ध लढण्याबाबत
अगदी पार एकविसाव्या शतकाबाबत......
कदाचित तेंव्हा,
हॉटेल शेरेटन,किंवा होटेल सिद्धार्थ,
किंवा वडा-पावाचा ठेला,
किंवा रोड-साईडचा ढाबा,
कुठेतरी बसून
न्हावी भंगी चांभारांबरोबर
मी अध्यात्मवादाची चर्चा करेन.......
पण आज ?
फक्त एक लोटी पाण्यासाठी
तू आमच्या विहिरीवर येतोस,
आमच्या शेकडो वर्ष जुन्या विहिरीत
तुझा दोर उतरत जातो --
पार खालच्या तळापर्यंत
आमच्या हातात विळे कोयते तयार आहेत
अमोघ वार करण्यासाठी प्रसिद्ध --
आई-बहिणीवरून शिव्या,
संकट-मोचनाचा संकल्प
तुझी पाण्याची लोटी
विहिरीच्या तळावर वाजते
एक हुंकार उमटतो
आणि विहिरीच्या पलीकडे
तुझे शिर जाऊन पडते
आमच्या मुलांचा गद्य-पद्य-संग्रह
रैदासाच्या कवितेने सुरु होतो
इकडे चांभारीण तुझे शिर घेऊन
कुठे कुठे जाते
पोलिस चौकी, आमदार, चौफुला
आणि रस्त्याच्या प्रत्येक वाटसरू पर्यंत
गांवक-यांवा काही दिवस लागतात
या शिरामागची कथा उमजेपर्यंत
काही काळ हत्यारे
शहरांत राहून येतात.
इकडे परीक्षेत
रैदासाच्या कवितेचा अर्थ लिहून
त्यांची मुलं पास होतात
आणि वरच्या वर्गांत चढवली जातात.
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तुझ्याबाबत मी कितीक विचार करतो
तुझ्या बाजूने उभं रहाण्याबाबत
ब्राह्मणवादाविरुद्ध लढण्याबाबत
अगदी पार एकविसाव्या शतकाबाबत......
कदाचित तेंव्हा,
हॉटेल शेरेटन,किंवा होटेल सिद्धार्थ,
किंवा वडा-पावाचा ठेला,
किंवा रोड-साईडचा ढाबा,
कुठेतरी बसून
न्हावी भंगी चांभारांबरोबर
मी अध्यात्मवादाची चर्चा करेन.......
पण आज ?
फक्त एक लोटी पाण्यासाठी
तू आमच्या विहिरीवर येतोस,
आमच्या शेकडो वर्ष जुन्या विहिरीत
तुझा दोर उतरत जातो --
पार खालच्या तळापर्यंत
आमच्या हातात विळे कोयते तयार आहेत
अमोघ वार करण्यासाठी प्रसिद्ध --
आई-बहिणीवरून शिव्या,
संकट-मोचनाचा संकल्प
तुझी पाण्याची लोटी
विहिरीच्या तळावर वाजते
एक हुंकार उमटतो
आणि विहिरीच्या पलीकडे
तुझे शिर जाऊन पडते
आमच्या मुलांचा गद्य-पद्य-संग्रह
रैदासाच्या कवितेने सुरु होतो
इकडे चांभारीण तुझे शिर घेऊन
कुठे कुठे जाते
पोलिस चौकी, आमदार, चौफुला
आणि रस्त्याच्या प्रत्येक वाटसरू पर्यंत
गांवक-यांवा काही दिवस लागतात
या शिरामागची कथा उमजेपर्यंत
काही काळ हत्यारे
शहरांत राहून येतात.
इकडे परीक्षेत
रैदासाच्या कवितेचा अर्थ लिहून
त्यांची मुलं पास होतात
आणि वरच्या वर्गांत चढवली जातात.
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नंद चतुर्वेदी 7 कविताओंका मराठी अनुवाद फॅन्सी ड्रेस कॉम्पीटीशन
फॅन्सी ड्रेस कॉम्पीटीशन
-- नंद चतुर्वेदी
(अनुवाद -- लीना मेहेंदळे)
अंतर्नाद ---- ???
फॅन्सी ड्रेस कॉम्पीटीशनमधे,
मिक्कू विवेकानंद झाला.
आम्ही सगळे खुश,
मी आणि मिक्कूचे आई बाबा,
चला, पोरगा विवेकानंद झाला.
वेषभूषा करून बाहेर आला
तेंव्हा "सबकुछ विवेकानंद"
कुठेही मिक्कूपण बाकी नव्हतं!
इतर मुले पण बनली --
योगी, यति, संन्यासी....
क़म्पीटीशन सुरु झाली तेंव्हा
विवेकानंदाचा गाजावाजा झालाच नाही,
आणि त्या योगी, यति, संन्यासींचा पण नाही...
कुणी एक जो सिकन्दर बनला होता
त्याच्याच एण्ट्रीवर टाळ्या वाजल्या
अगदी मिक्कू-विवेकानंदाने पण टाळ्या वाजवल्या.
आपण उगाचच बनवला मिक्कूला विवेकानंद
अशी हळहळ करत राहिलो --
मी, आणि मिक्कूचे आई-बाबा
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-- नंद चतुर्वेदी
(अनुवाद -- लीना मेहेंदळे)
अंतर्नाद ---- ???
फॅन्सी ड्रेस कॉम्पीटीशनमधे,
मिक्कू विवेकानंद झाला.
आम्ही सगळे खुश,
मी आणि मिक्कूचे आई बाबा,
चला, पोरगा विवेकानंद झाला.
वेषभूषा करून बाहेर आला
तेंव्हा "सबकुछ विवेकानंद"
कुठेही मिक्कूपण बाकी नव्हतं!
इतर मुले पण बनली --
योगी, यति, संन्यासी....
क़म्पीटीशन सुरु झाली तेंव्हा
विवेकानंदाचा गाजावाजा झालाच नाही,
आणि त्या योगी, यति, संन्यासींचा पण नाही...
कुणी एक जो सिकन्दर बनला होता
त्याच्याच एण्ट्रीवर टाळ्या वाजल्या
अगदी मिक्कू-विवेकानंदाने पण टाळ्या वाजवल्या.
आपण उगाचच बनवला मिक्कूला विवेकानंद
अशी हळहळ करत राहिलो --
मी, आणि मिक्कूचे आई-बाबा
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देशकी ताकत जगानेको क्या चाहिये ?
देशकी ताकत जगानेको क्या चाहिये ?
-- लीना मेहेंदले
17-10 2010
चाहे कर दो अंधेरा हजार दिवारोंसे,
एक छोटी लौ काफी है अंधेरा मिटानेको ।
चाहे ढँक लो अपनी करतूतें हजार परदोंमें,
एक तेज वार काफी है उन्हें टर्रारा फाडनेको।
जमा ली पूरी सेना विराटकी गायें हडपनेको,
एक अर्जुन काफी था उन्हें छुडानेको।
हडप लो देशकी मिट्टी-जमीं दामादके नातेसे,
एक म्यूटेशन-रिवर्सल काफी है देशकी ताकत जगानेको।
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-- लीना मेहेंदले
17-10 2010
चाहे कर दो अंधेरा हजार दिवारोंसे,
एक छोटी लौ काफी है अंधेरा मिटानेको ।
चाहे ढँक लो अपनी करतूतें हजार परदोंमें,
एक तेज वार काफी है उन्हें टर्रारा फाडनेको।
जमा ली पूरी सेना विराटकी गायें हडपनेको,
एक अर्जुन काफी था उन्हें छुडानेको।
हडप लो देशकी मिट्टी-जमीं दामादके नातेसे,
एक म्यूटेशन-रिवर्सल काफी है देशकी ताकत जगानेको।
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