Sunday, October 21, 2012

मैं डर गया

मैं डर गया
some time in 2004
published in Akshar-Parv Raipur


मेरा कसूर क्या है,
फैसला तुम ही कर लो
तुम्हें उन पलों का वास्ता
जो मैंने अपने आपसे चुराकर
तुम्हारी झोली में डाल दिये।

मेरी जिन्दगी में तुम आए, बुलाया मैंने नही था,  
मेरे शहर में तुम आए, बुलाया मैंने नही था,  
मेरे दिल पर तुम छाए, बुलाया मैंने नही था
तुम्हारा आना,
जैसे बेल पर चटखी पहली कली
जैसे आषाढ की पहली फुहार,
जैसे दूब पर पहली ओस,
जैसा साँझका पहला तारा,
जैसे भोरकी पहली किरण
जैसे वसन्तकी पहली बयार ।
बस एक पल,
उसे पूरी जिन्दगी न बनाओ ।

बसन्ती बयार,
तुम्हें नाचने घूमने के सिवा क्या करना आता है
क्यों दस्तक देती हो बारबार मेरी ए.सी. कमरेकी खिडकी में
मेरी रातें, मेरे दिन, मेरी साँझें, मेरी सुबहें,
बनाई हैं ए.सी. की ठंण्डी साँसों ने
ये खिडकियाँ, ये चौखटें, खुलना ठीक नही।

तुम आए मेरे मेहमान,
अपनी धूप, धूल, जंगली सुगन्धियाँ लिये
बुलाया मैंने नही था

पर छोड नही पाता तुम्हारे एहसास को
जब खटखटाती है बसन्ती बयार मेरी खिडकी को
लालायित हो उठता हूँ,
जाऊँगा, खोलूँगा ये खिडकी किसी दिन ।

लेकिन तुम क्या जानो मेरे मेहमान
ए.सी. कमरे, ठण्डा सुकून,
जिन्दगी यही है,
खिडकी खोलने में नही ।

आज फिर आया तुम्हारा एहसास,
कहना चाहा कि खोलूँगा खिडकी,
मगर मैं डर गया, मैं रुक गया।
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