--कुसुमाग्रज की कविता के रूपान्तर की भूमिका
माननीय कुमुमाग्रज, मराठी के एक श्रेष्ठ कवि और साहित्यकार होने के साथ-साथ एक सह्रदय और सामाजिक दृष्टिकोण वाले व्यक्तित्व थे। देश, भाषा, संस्कृति और समाज के प्रति उनका गहन चिंतन था। पर इन सबसे बढकर जो सर्वोपरि गुण उनमे था, वह था दूसरो की अच्छाइयों को, खास कर अच्छे साहित्यिक गुणों को परखना और उत्साह बढाना। इसका लाभ मराठी के कई नवोदित साहित्यकारों को हुआ।
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के प्रायः सारे मराठी कवि और साहित्यिक कुसुमाग्रज को शिरोमणि मानते रहे। सन् १९१२ से १९९९ तक की लम्बी आयु उन्होंने पाई और अंत तक लेखन करते रहे। उनका तेरहवाँ कविता संग्रह 'मारवा' १९९९ में उनकी मृत्यु के कुछ ही दिनों पूर्व तैयार हो रहा था, जब की पहला कविता संग्रह १९३३ में छप चुका था। इतनी अधिक रसिकप्रियता कम ही साहित्यिकों को मिलती है। रेकॉर्ड के लिये उनके कविता-संग्रह
यों गिनाये जा सकते हैं - जीवन लहरी (१९३३), विशाखा (१९४२), किनारा (१९५२), मराठी
माती (१९६०), हिमरेषा (१९६४), वादळवेल (१९६९), छंदोमयी (१९८२), मुक्तायन (१९८४),
पाथेय (१९९०), महावृक्ष (१९९४), मारवा (१९९९) ! जाईचा कुंज (१९३६) उनकी बाल
कविताओं का संग्रह है और मेघदूत (१९५६) - कालिदास रचित मेघदूत का मराठी भाषान्तर !
जीवनलहरी 1933
विशाखा 1942
समिधा
1947
जीवनलहरी
1949(दुगुनी
बढाकर)
किनारा
1952
मराठी
माती1960
स्वगत
1961
हिमरेषा
1964
वादळवेल
1969
छंदोमयी
1982
मुलायन
1984
पाथेय
1989
मबावृक्ष
1994
मारवा
1994
मुझे यह दुख हमेशा सालेगा कि उनकी कविताओं का हिंदी अनुवाद करने की बात मुझे उनके देहावसान के उपरान्त ही सूझी । मेरा मराठी लेखन, जो प्रायः प्रशासनिक व सामाजिक विषयों से संबंधित या फिर बच्चों के लिये रहा है, उन्हें अच्छा लगता था। उन दिनों वे आदिवासियों के लिये विशेष काम करवा रहे थे और मैं नासिक में डिविजनल कमिशनर
थी। एक सुंदर बंगाली कविता का मराठी अनुवाद पढ़कर उन्होंने खास अभिनंदन भेजा था।
लेकिन मेरे हिंदी लेखन से वे अपरिचित थे। और मैं उनकी मराठी कविता का अनुवाद हिंदी में कर सकूँगी इस बात से मैं खुद ही अनभिज्ञ थी। उनसे जो भेंट-मुलाकातें होतीं उनमें हमारी अधिकतर बातें वर्तमान सामाजिक ओर शासकीय परिप्रेक्ष्य की बाबत ही हुईं। शायद इसी कारण उनके जीवन काल में ही उनकी कविता अनुवादित करने का मौका ही मुझे नहीं
मिल पाया।
कुसुमाग्रज की करीब हजार कविताओं में से सौ-सवासौ कविताओं का अनुवाद मैंने किया है और पाया है कि यह मंथन कोई सरल काम नहीं है। उनकी कविताओं का कॅनवास अत्यंत विशाल है जिसका आरंभ हुआ क्रांति की कविताओं से, और शोषण विरोधी विचारधारा से। उनका गहन विश्र्वास था कि प्रबल अन्यायी की हार होकर रहेगी और निर्बल सा दीखनेवाला शोषित समाज यदि न्याय का आलंबन लेकर डट जाय तो साधनहीनता के बावजूद वही विजयी होगा। यह विश्र्वास उनकी कविताओं में बार बार झलकता है। जीवन की अच्छाइयों पर उनकी अटल श्रद्धा थी। कर्तव्यपरायणता, परिश्रम, महत्वाकांक्षा, मनोबल, इत्यादि गुणों को वे जीवन में और लेखन में भी महत्व देते थे। इसी आशावाद, संघर्षपरता और इच्छाशक्ति की अभिव्यक्ति उनकी कविताओं का प्रमुख गुण है। इसके अलावा जैसी सरलता और व्यावहारिकता उनके जीवन सें झलकती थी वही उनकी कविताओं में भी है,
उदाहरणस्वरुप 'सैनिक' या 'पुतले मान रहे आभार'।
सामाजिक औपचारिकता, दिखाऊपन और वंचनाओं से उन्हें चिढ थी और यह चिढ़ उनकी कविताओं में खुल कर प्रगट होती थी जैसा कि 'सस्ता सौदा सरकारी' में देखा जा सकता है। उन्होंने रोमॅन्टिक कविताएँ लिखीं तो बड़ी गहराई और सूक्ष्मता से जैसे 'आईना'। उपहास की कविताएँ लिखीं तो गुदगुदाने वाले उपहास से भरपूर, जैसे 'लॉ एण्ड ऑर्डर'। लेकिन जहाँ उन्होंने तीखा व्यंग करना चाहा तो कमाल का तीखापन कविता में भर दिया। उनकी कल्पना की पहुँच भी दूर - दूर तक जाती है। चेतना के एक ही पल में एक साथ जीवन की लघुता और महत्ता दोनों को छू लेने वाली उनकी प्रतिभा है जो 'सुना था' 'क्यों', 'यह चंद्र', या 'बहन कोकिला' में हम देखते हैं।
अनुवाद के लिए यह एक ही समस्या नहीं है कि इतना बड़ा कॅनवास कैसे पकड़े। कुसुमाग्रज शब्द-प्रभू थे और शब्द-कृपण भी। कम से कम शब्दों में वे अपने विचार रखते हैं और फिर भी ताल, लय, सुर, नाद, छंद, सब उनकी कविता में होते हैं। उन्हें पकड़ पाना अनुवादक के बस की नहीं। फिर मुझे कुछ काम्प्रोमाइज करना पड़ा। वह ऐसे कि अनुवादित कविता में शब्द एवं मात्राओं को बढ़ा कर यदि छन्दबद्धता और नाद को बचाया जा सकता है तो बचाओ। बिना मात्रा बढ़ाये, बिना लय खोये और फिर भी भाव ज्यों का त्यों रखकर जब कोई अनुवाद बन पाया (जैसे बहन कोकिला) तो मुझे लगा कि यहाँ मेरी जीत हो गई। जहाँ मराठी के ही अनुरूप भाव दूसरे हिंदी शब्द से उतनी ही सक्षमता से व्यक्त हुआ, मुझे लगा मैं जीत गई। लेकिन ऐसे भी स्थान हैं जहाँ अनुवाद उस उत्कटता या शब्द सौष्ठव को नहीं छू सका है जैसा मूल कविता में है। उदाहरण स्वरूप, उनकी कविता 'कणा' में 'नाही मोडला कणा' जैसी टिपिकल मराठी शब्द-रचना है जिसका शब्दार्थ है - रीढ़ की हड्डी नही टूटी जबकि भावार्थ है -- मैंने हार नहीं मानी और तनकर डटा रहा। लेकिन इसके हिंदी अनुवाद में वह बात नहीं आती जो 'नाही मोडला कणा' में है। उसे मैंने अनुवाद की मर्यादा मानकर संतोष किया। फिर भी उनकी कुछ सुंदर कविताएँ मैंने इसलिए छोड़ दीं कि मुझे लगा मैं उनके साथ न्याय नहीं कर पाऊँगी।
अनुवाद की रचना से मूल कवि का समग्र मूल्यांकन नहीं किया जा सकता क्योंकि अनुवादक का चुनाव उसके अपने स्वभाव, औचित्य और सुविधा पर निर्भर है। साथ ही मूल कविता की संपूर्ण गहराई, नादमाधुरी, और शब्दचातुर्य अनुवाद में नहीं उतर सकते।
कुसुमाग्रज की कुल कविताओं के इस दसवें हिस्से के अनुवाद से यदि पाठकों को उनके सोच की जानकारी हो सके और उनकी कविता से प्रेम हो जाय तो अपना प्रयास सफल मानूँगी।
उनकी कविताओं की पूरी रेंज जानने के लिये तो पाठक को और भी बहुत कुछ पढ़ना पड़ेगा।
दो उल्लेख आवश्यक मानती हूँ। सन् १९९४ में कुसुमाग्रज को 'ज्ञानपीठ' पुरस्कार मिला तो उनकी कुछ चुनिंदा कविताओं का अनुवाद 'इसी माटी से' नामक संग्रह में ज्ञानपीठ ने छापा था। यहाँ चुनी गई कविताएँ उनसे भिन्न है। दूसरी बात - अनुवाद में थोड़ी छूट मैंने ये ली है कि मराठी के कुछ शब्द ज्यों के त्यों रखे हैं। खासकर एक शब्द 'सांत्वन' जो मराठी में सांत्वन एवं सांत्वना दोनों रूपों में प्रयुक्त होता है। मैं मानती हूँ कि इस तरह से कुछ शब्द आयात कर लेने से भाषा पर कोई आघात नहीं होता बल्कि उसकी गतिशीलता बढ़ती हैं। कुछ टिपिकल आयातित शब्द हैं - रहिवासी, अगतिक, कोनशिला, अभंग, प्रभुत्व, अशरण, तंबू, खंदक, नारसिंह, कलंदर, अनागर, अंबारी, राजीनामा, हिंदीकरण, भाकरम्, कणा,
चित्पावन। इसी तरह कुछ शब्द बिहारी स्टाईल से भी लिए हैं - छुआए, कुकुरभौंक, टांट।
'जीवनलहरी' से 'मारवा' तक कवि का प्रवास कैसा रहा है? 'जीवनलहरी' की कविताएँ आठ-आठ पंक्तियों की लय औंर तालबद्ध कविताएँ हैं (उदाहरण धर्म - संहिता, सार्थक) जो जीवन के कई अंगों को एक दार्शनिक की दृष्टि से छू जाती है।
दूसरे संग्रह 'विशाखा' ने उनकी असल पहचान बनाई जिसमें लम्बी-लम्बी (फिर भी लयबद्ध) प्रेम या क्रांति की कविताएँ हैं। इसी संग्रह की एक कविता में कवि ने अपनी कविता की जाति सुनिश्च्िात कर डाली और उसे 'समिधा' की संज्ञा दे दी ------
समिधाच सख्या या, त्यांत कसा ओलावा,
कोठून फुलापरि वा मकरंद मिळावा
जात्याच रूक्ष या, एकच त्या आकांक्षा,
तव आंतर अग्नी क्षणभर तरि फुलवावा।
'मेरी कविता का उद्देश्य, (हे पाठक), तुम्हें पुष्पराग देने का नहीं, बल्कि तुम्हारे अंतर
की आग को प्रस्फुटित करने का है।' 'क्रांतिचा जयजयकार', 'अहि-नकुल', 'हे व्यर्थ न हो
बलिदान', 'सात', 'धरती और रेलगाड़ी', 'कोलंबस का गर्वगान', इत्यादि क्रांति की कविताओं
ने १९४२ की पार्श्र्वभूमि में धूम मचा दी थी। वे आग धधकाने वाली कविताएँ थीं। जब वे
लिखते हैं - वेडात दौडले वीर मराठे सात झ््रशहीदाना जुनून से सात वीर मराठे दौड़ चलेट तो
शब्दों के चयन से उत्पन्न होने वाले नाद के टणत्कार को कविता के आवेश और ऊर्जा सहित
अनुवादित करना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव सा लगता है। अन्यायी शासक के शोषण का
चित्र खींचा गया है बळी, पाचोळा, गुलाम, लिलाव इत्यादि कविताओं में और उत्कट प्रेम काव्य
हैं 'दूर मनो−यात', 'पृथ्वीचे प्रेमगीत', 'स्वप्नाची समाप्त्िा' इत्यादि। इन कविताओं में कहीं गहन
ऐंद्रिकता है तो कहीं रहस्यात्मक विरह-व्यकुलता। सूर्य के प्रेम को तरसती पृथ्वी का यह
संवाद बड़ा ही मार्मिक है-
अमर्याद है मित्र तेरी महत्ता,
मुझे ज्ञात मैं एक धूली कण
सँवारने को तुम्हारे चरण,
ये धूल ही है मेरा भूषण
मराठी में 'ण' का स्वरोच्चार वजन के साथ किया जाता है जबकि हिंदी में हौले से।
अतएव यहाँ शाब्दिक अनुवाद के बावजूद कविता गायन में वह ठोसपन नहीं आता है जो
मराठी में है।
किनारा मुख्यतः प्रेमगीत, देश-भक्ति और निसर्ग-कविताओं का संग्रह है जिसमें अचानक
'कायदा' जैसी सरकारी व्यवस्था से मोहभंग दिखलाने वाली कविता भी आ जाती है। 'मराठी
माती' में दार्शनिकता और प्लेटोनिक प्रेमगीतों का प्रतिशत बढ़ जाता है। 'हिमरेषा' की कई
कविताओं को भारत-चीन युद्ध की पार्श्र्वभूमि मिली हुई है (जैसे सैनिक) !
जीवन की व्यावहारिकता और उपहास भी पहली बार इस कविता संग्रह में उतरे हैं। आगे
यही उपहास, राजकीय व्यवस्था से मोहभंग, देश के सम्मुख बढ़ते प्रश्न आदि उनकी कविता में
अधिकता से झलकने लगे। 'एक प्रधान मंत्री आदिवासी गाँव में दौरे पर निकला, तो उसीके
बहाने बुढिया माई का दस दिन से ठंडा पड़ा चूल्हा जल गया क्योंकि पटवारी ने घर-घर
राशन पहुँचाया' - यह है उनकी कविता 'राजा आला'। दूसरी कविता है - 'पंढरी चा राया'
('राया' मराठी का एक बडा ही प्यारा शब्द है जिसके दो अर्थ हैं - प्रियतम और
राजराजेश्र्वर); जब पंढरी का राया पुजारियों द्वारा बंदी बनाया गया, तो मुझ जैसा भक्त अब
उसके द्वार पर केवल नोटों के बंडल के रुप में ही पहुँच सकता है - 'पंढरी के रायजी, अरे
त्रिलोकपालजी, क्या तेरी गत बनी, तेरे ही धाम में।' कवि के व्यंग्य की चरम ऊँचाई छू जाती
है उनकी कविता 'गर्भगृह' में !
कुसुमाग्रज की सारी साहित्यिक रचनाओं में जीवन के प्रति भरपूर सम्मान है और उन
लोगों के प्रति भी जिन्होंने अपने दृढ़ निश्चय, कर्तव्यपराणता और कठोर परिश्रम के बल पर
जीवन की ऊँचाईयों को छुआ है। कोलंबस, बाबा आमटे, सैगल, लोकमान्य तिलक, बिस्मिल्ला
खान, झाँसी की रानी न केवल उनके गद्य लेखन के बल्कि कविताओं के भी चरित्र-नायक रहे
हैं। और ऐसे लोकनायक अपनी उपलब्धियों के प्रति गर्व महसूस करे, इसे भी वह सही मानते
थे।
उनकी प्रसिद्ध कविता 'कोलंबस का गर्वगान' में जब कोलंबस सागर को ललकारता है,
तो देखिये उसके (या कवि के?) तेवर -
रे, अंनत है मेरी ध्येयासक्ति,
और अंनत है मेरी आशा,
किनारा तुझ पामर के लिये,
मुझ नाविक को दसों दिशा।
इनके साथ-साथ उनकी कविता में प्रकृति के प्रति अनन्य कृतज्ञता का भाव भी है
क्योंकि अंततोगत्वा वही सबको जीने का संबल देती है।
यहाँ उल्लेखित कुछ नितान्त सुंदर कविताओं का अनुवाद मैंने नहीं किया है। कवि की
'यह चंद्र' कविता में चर्चित चंद्रमा 'प्रतिभाशाली किसी कविव को गूढ़ विश्र्व के भेद' बताता है।
सो यदि मेरी प्रतिभा को भी चंद्रमा ने वहाँ तक पहुँचा दिया तो आगे कभी उन कविताओं का
अनुवाद मुझसे हो पायेगा, वरना कवि की आत्मा को (और हिंदी पाठकों को) किसी अन्य
अनुवादक की बाट जोहनी पड़ेगी।
लीना मेहेंदळे
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कुसुमाग्रज की प्रेमकविताएँ
मराठी के मूर्धन्य कवि श्री कुसुमाग्रज आरंभिक कालमें अर्थात् 1940 के दशक में अपनी उन ओजस्वी कविताओंके कारण बहुचर्चित रहे जो स्वतंत्रता आंदोलन की पार्श्वभूमि पर लिखी गई थी। स्वतंत्रता के बाद उनकी कविताओं के तेवर बदल गये।
कुसुमाग्रज ने दीर्घकाल तर काव्य रचना की है।उनका सबसे पहला कवितासंग्रह 1933 में और अन्तिम
कविता संग्रह 1999 में छपा। समय और सामाजिक बदलाव का प्रतिबिम्ब भी इन कविताओं में उभरना स्वाभाविक था।
कवि की करीब हजार कविताओं मे कई प्रेम कविताएँ भी हैं। इनमें “पृथ्वी चे प्रेमगीत” और “प्रेम कुणावर करावे” बहुचर्चित रहीं।पृथ्वी के प्रेमगीतकी कविकल्पना में पृथ्वी सूर्य प्रति अपने प्रेम और समर्पण को प्रगट करते हुए कहत है कि यों तो पर- प्रकाश से प्रकाशित शीतल चंद्रमा, संकोच से लाल होता हुआ मंगल, हिरे सा चमचमाता शुक्र, बारम्बर पास आकर मनानेवाला धूमकेतू सभी उसकी प्रीती की याचना कर रहे हैं, पर उसे उस जलन और तपिश और तेज की ही पूजा करनी है, भले ही वह हाथ न लगे। कविता के अन्तिम चरण में पृथ्वी कहती है,
अमर्याद है मित्र तेरी महत्ता मुझे ज्ञात मैं एक धूलीकण।
अलंकारने को तुम्हारे चरण,
ये धूल ही है मेरा भूषण।।
“प्रेमयोग” कविता में कृष्ण को केंद्र में रखकर प्रेम कौन किस पर करे, इसका कोई नियम या फार्मूला नही होता। सौंदर्यमयी राधा से भी प्रेम हो सकता है और कुब्जा से भी, प्रेम की कोई जाति नही होती। यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कुछ प्रेम कविताओं का हिन्दी अनुवाद- हिमप्रस्थ व अक्षरपर्वमें प्रकाशित
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