Saturday, November 10, 2012

पसायदान


पसायदान

आता विश्वात्मकें देवें ।    येणे वाग्यज्ञें तोषावें ।
तोषोनिं मज ज्ञावे ।    पसायदान हें ॥
अब विश्वात्मक देव को नमन । होता वाग्यज्ञका समापन ।
तुष्ट हों दें मुझे दान । पसाय का ।।

जें खळांची व्यंकटी सांडो ।    तया सत्कर्मी- रती वाढो ।
भूतां परस्परे पडो ।    मैत्र जीवाचें ॥
कि दुष्टोंकी दुष्टता हटे । सत्कर्मोंमें चित्त लगे।
परस्परोंमें प्रीत बढे । मैत्र- भावसे ।।

दुरितांचे तिमिर जावो ।    विश्व स्वधर्म सूर्यें पाहो ।
जो जे वांच्छिल तो तें लाहो ।    प्राणिजात ॥
दुरितोंका तिमिर छटे । विश्व स्वधर्म सूर्य देखे ।
जो जो चाहे, वही लहे । प्राणी जात ।।

वर्षत सकळ मंगळी ।    ईश्वरनिष्ठांची मांदियाळी ।
अनवरत भूमंडळी ।    भेटतु भूतां ॥

चलां कल्पतरूंचे आरव ।    चेतना चिंतामणींचें गाव ।
बोलते जे अर्णव ।    पीयूषाचे ॥


चंद्रमे जे अलांछन ।    मार्तंड जे तापहीन ।
ते सर्वांही सदा सज्जन ।    सोयरे होतु ॥
चंद्रमा ज्यों अलांछन । मार्तंड ज्यों तापहीन ।
ऐसे सबोंको सज्जन । सगे होवें ।।

किंबहुना सर्व सुखी ।    पूर्ण होऊनि तिन्हीं लोकी ।
भजिजो आदिपुरुखी ।    अखंडित ॥

आणि ग्रंथोपजीविये ।    विशेषीं लोकीं इयें ।
दृष्टादृष्ट विजयें ।    होआवे जी ।

येथ म्हणे श्री विश्वेशराओ ।    हा होईल दान पसावो ।
येणें वरें ज्ञानदेवो ।    सुखिया जाला ॥
श्री विश्वेश्वरने तब कहा । यही तुझको पसाय दिया ।
इस वर से ज्ञानदेव हुआ । सुखिया सुखिया ।।
सुखिया सुखिया ।  सुखिया सुखिया ।।
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