Friday, October 5, 2007

विशाखा से -- प्रकाश - प्रभू .........

प्रकाश - प्रभू

तेजोमय घट उँडेल कर

रविराजा के अग्रदूत

खोल पूर्व के महाद्वार को

आए क्षितिज पार से।

उनके पीछे उदयगिरि से

विश्र्व चराचर का जीवन

ले स्वर्ण करों में, आई

मूर्ति परमेश्र्वर की।

प्रभू के आरुण मंगल पद

लागे ज्यों ही धरती पर,

लहरें उठीं अग्नि रस की

भू, जंगल, नद, नदियों पर।

देव हस्त का होता स्पर्श

मेघखंड भी होय दुभंग

उज्ज्वल रश्मि फूट फूट कर

नभमंडल को भर देतीं।

करने को सम्राट् का स्वागत,

सजती धरती, सजते परबत

फूलों ने श्रृंगार के लिए

बचा रखे थे थोडे हिमकण।

प्रभू मेरे भी हृदय पटल पर

चरण धरो अपने ये पावन

अंधियारी रात्रि है अबतक

निराश मन को जडे हुए।

तेरे चरणों का हो अंकन

उजियाला हो मेरा जीवन

फिर न कभी विचलित कर सकतीं

घोर तमों की लाखों रातें।
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