Translating kusumagraj
प्राक्कथन
प्राक्कथन
हिन्दी पाठकों के लिए मराठी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में कुसुमाग्रज का नाम सुपरिचित है। उनकी कविता राष्ट्रीय आंदोलन, राष्ट्र निर्माण के शुरुआती स्वप्निल वर्षों और बाद के स्वप्न भंग के वर्षों के पूरे काल-पटल पर फैली हुई महाकविता है। बल्कि उससे भी आगे आज के अंधकार में आशा की मशालें जलाकर आभा फैलाती हुई है।
कविता पुनर्जन्म है। मृत्यु पर जीवन की विजय है।कविता एक प्रतिकार है। एक प्रतिध्वनि है। एक प्रतिसंसार है। इन अर्थों में इस मूर्धन्य कवि की कविता भारत की पुरोगामी मानवतावादी और जनवादी शक्तियों की अपनी कविता है। वे अपने समकालीन और समानधर्मा हिन्दी कवि रामधारी सिंह दिनकर की याद दिलाते हैं। वही वाणी का मेघमन्द्र स्वर, वही गति का घर्घर नाद, वही हिमालय की तुंगता, वही समुन्द्र का आलोड़न, वही सामाजिक यथार्थ की तिक्तता, सब कुछ चिरपरिचित लगता है । तथापि इस कविता का अपना एक अलग ही आस्वाद है - लगभग उसी तरह जैसे सह्याद्रि के आमोंका, गोदावरी के जलका, पश्च्िामी घाट के वनों का और महाराष्ट्र के ओजका भारत के जीवन-वैभव में अपना अलग ही विशिष्ठ अवदान है। लीना मेहेन्दले ने कुसुमाग्रज की चुनी हुई कविताओं को हिन्दी मेंअनुवादित करके इस संग्रह के माध्यम से हिन्दी कविता की दुनिया को समृद्धतर किया हैं।
लीना मेहेन्दले हिन्दी पाठकों के लिये अनजान नहीं हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर उनके लेख विविध विषयों से हमें परिचित कराते रहे हैं। इस अनुवाद की विशेषता यह है कि लीनाजी ने हिन्दी में मराठी की सुगंध भरने की कोशिश की है। लगता है जैसे मराठी हिन्दी की उँगलियों में उँगलियाँ पिरोकर गुइयाँ-गुइयाँ कहती खेल रही हों। एक अद्भुत ताजगी भरा अटपटापन है इन कविताओं के अनुवाद में। रहिवासी, दिवाभीत, कोनशिला, अंबारी जैसे शब्दों का प्रयोग कविता के अनुवाद को अद्भुत स्निग्ध भषिक-वत्सलता से भर देता है । अजब सा और आत्मीय अनुभव है यह।
हिन्दी और मराठी सगी बहनें हैं लेकिन उनमें वही अंतर है जो गंगा और गोदावरी में, या पश्च्िामी घाट और विंध्य पर्वतमालाओं में। इस काव्यानुवाद में दो भाषाओं के तेवर मिल रहे हैं। जैसे दो समुंद्र मिल रहे हों -जैसे दाराशिकोह का मज्मुउल बाहरीन हो या फिर अमीर खुसरो के दोसुखने हों। अनुवाद की अपनी जटिलतायें होती हैं। सीमायें भी होती हैं। इनको पार कर पाना अनुवादकर्म की कसौटी है। लीना मेहेन्दले के इस अनुवाद में कुसुमाग्रज की कविता कुसुमाग्रज की ही कविता बनी रहती है - बस वह सीधे पल्लू वाली हिन्दी प्रदेश की साड़ी पहनकर हमारे मर्म का छूती हुई अपने समूचे 'निजत्व'के साथ हमारे पास चली आती है। कविता का इस तरह सीधे चले आना पाठक के पास तक उसी तरह होता है जैसे तुलसी की कविता - ''भगति हेतु विधि भवत विहाई, सुमिरत सारद आवत धाई' । ऐसा तभी संभव होता है जब अनुवादक दोनों भाषाओं के समूद्र का अच्छा नाविक हो और साथ ही कवि के मूल संवेदना की भूमि से स्वयं भी नाभितालबद्ध हो। लीना मेहेन्दले ने अपने तईं यह सिद्धि प्राप्त की है।
भारतीय कविता का मूल स्वभाव है गति, लय, लहर, नाद .........। और यही कुसुमाग्रज की कविता का भी मूल स्वभाव है। वर्तमान काल में पश्च्िामी परम्परा के अंधानुकरण वाली गद्यात्मक कविता की विषवेल हिन्दी, मराठी और अन्य भारतीय भाषाओं में फैल रही है। किंतु कुसुमाग्रज जैसे अग्रजों की कविता परम्परा के चलते यह विषवेल अधिक फैल नहीं पायेगी।
कुसुमाग्रज धरती के कवि थे। वे 'भारतीय स्वप्न'के कवि थे । उनकी कविता भावोच्छल है। बौद्विक चाकचिक्य की जटिलता से दूर, यह कविता मनुष्य के आभ्यन्तर की कविता है। इस कविता में अभिव्यक्ति की अद्भुत शक्ति के हमें जगह - जगह दर्शन होते है। नाटकीयता, मंच की दृश्यात्मकता, व्यंग्य का कटाक्ष, पाखण्ड का खंडन, लोक-कथा-गायकों का विस्तार, सभी कुछ इस कविता में मिलता है। कभी यही कविता मंत्र की तरह संक्षिप्त और आवेश से भरी हुई बिजली सी छूकर निकल जाती है। तो
कभी किसी जुलुस में डुबोकर हमें भी उस जुलुस में शामिल कर लेती है और धीरे-धीरे विशाल प्रवाह बन कर बहा ले जाती है। मजे की बात ये है कि इस अनुवाद को पढ़ते समय आपको लगातार मराठी कविता का प्रभा मंडल घेरे रहता है। कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि अनुवादक ने कविता के मूलरूप के साथ जरा भी छेड़खानी की हो।
कुसुमाग्रज कवि ही नहीं एक बड़े एक्टिविस्ट भी थे। और यह एक्टिविज्म उनकी कविता को हमारे अपने समय में और अधिक प्रासंगिक बनाता है- खासकर अब जब कि साम्राज्यवाद और धार्मिक कट्टरता के कबीलों ने न केवल भारत की भौतिक सीमाओं पर बल्कि सांस्कृतिक और आत्मिक सीमाओं पर भी अपने हमले तेज कर दिए हैं।
मराठी कविताओं के हिन्दी अनुवाद का यह संग्रह कई अर्थों में अद्वितीय है। पहले तो यह कि आधुनिक मराठी साहित्य को सिर्फ़ एक विशेष प्रकार के साहित्य तक ही सीमित कर देने का रिवा.ज सा इधर हिन्दी में चल पड़ा है। उससे हट कर यह अनुवाद एक बड़े फलक वाले मराठी रचनाकार को हिन्दी जगत से फिर रूबरू करता है जिसके कृतित्व में समाज के सभी पीड़ित वर्गों के सुख - दुख, आशा - आशंका, अनुभव को अभिव्यक्ति मिलती है। दूसरे यह रचनायें घृणा के विषवमन का अभिषेक नहीं हैं बल्कि इनमें अन्याय, अत्याचार, शोषण के विविध रूपोंको बेनक़ाब करने और उनसे भिड़ने की प्रबल ऊर्जा विद्यमान है। इनमें कहीं भी बनावट या कृत्रिमता नही है, है तो बस एक आंतरिक उल्लास। यह अपने परिवेश से ही उगती हुई कविता है, बाहर से आयातित की हुई नही। इसमें कहीं उद्बोधन है जैसे स्तंभ, स्वतंत्रता देवी की विनती, रहिवासी में । कहीं गोष्ठी, सत्संग चर्चा और भक्त परंपरा का समर्पण भाव भी - जैसे सुना था, तुकया, आलम्बन, पग चिह्न में । मुग्ध करती रहस्य छाया की अर्ध-स्मिती है- फिर जाऊँगा , कभी मन चाहे में । व्यंग्यका नमूना है लैला मंजनू, लॉ एण्ड ऑडर , अहो भाग्य में। तो रोमान्स है - सातवाँ चम्मच, आईना में। कुसुमाग्रज ने गहरी ऐंद्रिकता की कविताएँ भी लिखी हैं जिनका अनुवाद लीनाजी ने नहीं किया है। लेकिन उनकी कुछेक झलकियाँ मिल ही जाती हैं गुनाह और वृक्ष जैसी कविताओं में। 'जाते जाते' , 'जीवन' आदि मंत्र सी संक्षिप्त कविताएँ भी है और मोह भंग की कविताएँ - आखिरी कमाई, वन्दे - एक नाटयप्रसंग । गर्भ-गृह में भक्तिके उन ठेकेदारोंको बेनकाब किया है जो दावा रखते हैं कि वे तय करेंगे कि कोढियों, अछूतों के बीच जाकर रहे भगवान को गर्भगृह में वापस आने की अनुमति वे देंगे या नहीं।
मुझे पूर्ण विश्र्वास है कि खाँटी भारतीय परंपरा के साथ-साथ आधुनिक बोध वाली इन कविताओं के रसास्वादन से हिंदी साहित्य के पाठक अपनी संवेदना के क्षेत्र को अधिक विस्तृत और उदार बना सकेंगे। हिंदी कवियों को भी यह अनुवाद-संग्रह एक ताजी हवा का झोंका बनकर भाव-स्फूर्ति देगा।
दिनेश शुक्ला
1 मई, २००३
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Saturday, May 10, 2008
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1 comment:
यह लिंक मेरे कम्प्यूटर पर नहीं खुल सका.
-अमित
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