निजधर्म
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गुण दिन का होता प्रकाश है
रात्री का गुण श्यामलता
नभ का गुण है निराकारता
मेघों का गुण व्याकुलता।
श्रेयस्कर वह हो या ना हो
निजधर्म बिना है नही गति
कैद चराचर अपने गुण में
वहीं मुक्तता वहीं रति।
क्या कह सकते कभी धरा से
नदिया के सम बही चलो?
चकाचौंध बिजली को, फूलों पर
शबनम सी खिली रहो?
ऐसा ही मेरा होना भी
इसके जैसा एक यही
कालचक्र की अनंतता में
एक समान दूजा नाही।
अछेद्य मुझसे, अभेद्य मुझसे
भला -बुरापन मेरा
छूट गया गर शून्य के सिवा
बाकी रहा क्या मेरा?
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Sunday, July 11, 2010
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