पिशाच
निपट अंधेरी रात में
अपने ही अकेलेपन में
चूर मैं।
खटखटाया द्वार किसी ने
देखा चेहरा एक खडा था,
हूबहू मेरा।
घबराया मैं,
चिहुँक उठा मैं,
पूछा कौन, कौन चाहिए ?
आनेवाला
हँसकर बोला
पिशाच हूँ मैं तेरा।
भूतकाल की कबर
अंधियारी, सीलन भरी,
असह्य हो चली।
उठकर आया
तेरे ही पास
और जाऊँ भी कहाँ।
पिशाच था,
पर मेरा ही था
अपनापन तो होना ही था।
आवभगत की
अंदर लाया
बातें भी कीं।
कालचक्र की
दूरी को
कुछ सिमट सका मैं।
उधेड डालीं
कुछ परतें,
कुछ छिला हृदय।
विसंवाद में कभी
शेर की भाँति गरजा।
प्रेम, द्वेष, हास्य के स्मरण में
स्वर भी लरजा।
आखिर आई भोर,
उठ गया,
चला गया
हममें से एक।
छोड गया
शंका,
पूरी उमर के लिए।
कौन गया और
कौन रह गया
मैं या मेरा पिशाच ?
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Saturday, August 6, 2011
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