Sunday, August 7, 2011

मराठी माटी से -- फिर जाऊँगा

फिर जाऊँगा

गये रात मैं जागा
यूँ ही बाहर आया
देखा बादल का तकिया ले
सोई थी धरा।

जगी अचानक
शामल चादर सरकाई
पाया भोर का तारा
रुका अकेला था।

धरा लजाई, पूछा
अबतक क्यों न गए
सिरहाने ही खडे रहे
यूँ दीप लिए।

बोला हँसकर, तेरी
प्रीत की नहीं अपेक्षा
जानूँ मैं किसके आने की
तुझे प्रतीक्षा।

क्षितिजपार से उषा- रथ में
आएगा रवि
नीले वस्त्र उतार
सुनहरी चुनरी लोगी।

रूपगर्विता स्वागत करने
जब निकलोगी,
वह तेरा लावण्य देख लूँ,
फिर जाऊँगा।
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