Saturday, August 6, 2011

किनारा से --कमी

कमी

बैठा है श्र्वान ऊँची कुर्सी पर
सर पे सुशोभित है पगडी
पैरों में बाली बजे है चाँदी की
कंठ में हीरे की माला पडी।

बनी वेषभूषा ऐसी समर्पक
काला है कोट और पतलून लाल
राजस है मुद्रा, नजरें भी राजस,
उतरी खरी राजसी चालढाल।

भौंके कभी पर नही वो अचानक
है गुण ये उच्चासनों का सभी
कभी नाक फैली कभी कान ऊपर,
अभी आँख खोली थीं, बंद है अभी।

हा हन्त बाकी रहा न्यून एक
कमी यह मिटाए से मिटती नही
हिलती रहे पूँछ दासता भाव से
राजसी वेष में भी ये अँटती नही।
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