असह्य
माफ कीजिए मुझको
लेकिन सोच रहा हूँ
यह बच्चियाँ,
और बच्चे भी
मर ही जायें।
पंखों पर हो
थकन अपार
दम भरने को
कोई न ठौर
न कोई मीत।
दरिद्रता यह
और अपमान
कदम कदम पर
पिसती छाती।
निरालंब नभ की यात्रा में
बिना घोंसला
नन्हें पंछी
कब तक उड पायें?
फुरसत ही नही
कुछ हँस लेने की
नही अनुमति
रो लेने की।
जिंदा रहने की है सख्ती
किन्तु हाय उस
जिन्दगानी का
अर्थ न कोई।
केवल थकन
केवल घुटन
केवल रुदन
केवल पिसन
अन्यायों की
दीवारों में
गडते जाना।
ऐसे जीवन की बोझ बनी
चिंदियाँ उठाये
कब तक ये बच्चे
सहते जायें ?
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Saturday, August 6, 2011
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