Saturday, August 6, 2011

महावृक्ष से -- हास्यास्पद

हास्यास्पद

मरते हैं सभी आदमी,
पर वृत्तपत्रों तक पहुँचनेवाले,
ज्यादा नहीं।

वृत्तपत्रों तक पहुँचनेवाले,
मरते नहीं हैं ---
वे होते हैं दिवंगत,
या होता है उनका निधन।

वे देववाणी में होते हैं दिवंगत,
जबकि सामान्य जन
प्राकृत वाणी में
मर जाते हैं।

आज या कल, मैं भी शायद
दिवंगत हूँगा,
मरूँगा नहीं।
उतनी कमाई गाँठ में
जरूर है।

कम-से-कम, दो काँलमों का शीर्षक
मैं तो छेकूँगा,
अलावा, कुछ लेख, कुछ संस्मरण।

और यदि फूटें न हों बम,
हुए न हों दंगे,
मंदिर, मस्जिद और शेयर बाजार
सुरक्षित हों,
तो पा ही जाऊँगा ----
एकाध संपादकीय भी।

और शोकसभा ?
हाँ, वह भी !
अप्रस्तुत, विसंगत भाषणों भरी,
ऊबे हुए श्रोता,
जो अंत आने तक थक भी चुके होंगे,

जम्हाई को छिपाते हुए,
खडे हो जाएँगे दो मिनट,
सबकी व्याकुल निगाहें टिकी होंगी अध्यक्ष पर,
कि कब वे बैठेंगे।

कुल मिलाकर ---
जीवन की गंभीर कथा को
शाप हास्यास्पद मरने का,
कर्पूर पुतला कोटि कणों का
क्षण में होगा भक्ष्य चिता का।
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