अच्छा सा
मैं एक अच्छे से घर में रहता हूँ।
एक अच्छी सी कुर्सी पर बैठा हूँ।
और एक अच्छा सा विचार भी करता हू।
अच्छा सा विचार करते करते
याद आईं झुग्गी झोंपडियाँ
शाम की देखी।
किरासन की ढिबरी से
उफनते थे धुएँ के निवेदन,
आदमी और वस्तुओं के अधोगत अर्थशास्त्र से,
शराब की सडांध में कुम्हलाया आकाश,
अंधेरे में बिलबिलातीं
विकट सर्पिणियाँ
मार्गस्थों को डंख मारने की हीन दीन कोशिश
हाथगाडियों पर तले जाते कबाब, पकौडे,
गाली गलौज,
नशे में धुत् आँखें जलतीं लाल,
सडक किनारे अलिप्तता से
मरा या मरता हुआ
पडा कोई शरीर
उसी अलिप्तता से
जैसे पेड से गिरे
पका हुआ पत्ता।
साथ मेरे अच्छा सा एक मित्र था, बोला,
इन गंदे कूडा घरों को
जला देना चाहिए
उखाड फेंकना चाहिए इन बस्तियों को
मैंने कुछ विचार किया, पूछा,
और अपनी अहिंसा का क्या ?
उसने कहा अहिंसा एक अच्छा सा विचार है
पर यहाँ बेमानी है।
सवाल है आपके, मेरे जिन्दा रहने का
संस्कृति अपनी टिकाए रखने का
यह बचनागी, कीचड में अमरबेल से,
फैलते ही जायें अगर,
तो ढह पडेंगे हमारे भी शहर,
पाम्पी जैसे।
कुलीन स्त्र्िायाँ भी बनेंगी वेश्याएँ
आदमी बनेंगे दलाल और गुंडे
क्यों कि जो खोटा है,
खींचता है खरे को,
अपनी मैली चादर पर,
जानवर जैसी हीन सतह पर,
उस खोटे को समूल उखाड फेंकने को --------
मैंने फिर अच्छा सा विचार किया, कहा
अच्छा खासा सही है आपका कहा।
लेकिन अब इस अच्छी सी घडी में
सोचता हूँ कि
वैसा हो भी जाए अगर, क्या बुरा है ?
आदमी कैसे जिए
इससे महत्वपूर्ण है और वही सच भी है
कि आदमी जिए।
आया यह ना-अच्छा सा एक विचार
एक अच्छे से घर में
बैठे अच्छी सी कुर्सी में।
-----------------------------------------------
Sunday, August 7, 2011
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment