सैनिक
सैनिक जो हमको दिखता है,
नाटकों का समर धुरंधर,
शत्रु खेमे में धँस जाए
सहास्य मुख, भवपाश तोडकर।
ताव मूँछ पर देकर कहता,
जन्मा कोई पूत माई का ?
चटनी करता सौ शत्रू की,
फिर नेपथ्य देखकर हँसता।
किन्तु रेल में कभी दीखते
बदरंग, खाकी ड्रेस पहनकर
फटे दोने में दहीबडे खानेवाले,
दोहा, अभंग, बिरहा कोई गानेवाले।
ऐसा सैनिक जब मिलता है
जम्हाई लेकर डयूटी का दुखडा रोता है,
भली नौकरी क्लर्की की
डयूटी केवल कुर्सी की।
तनखा, ओ.टी. महीने की,
गिनती नही कोई छुट्टी की।
सैनिक पेशा कष्टभरा है,
डिसिप्लीन का बोझ बडा है
पत्नी बच्चे बरसों दूर,
कहते गला भर्रा जाता है।
ऐसा वीर रूप देखकर,
मध्यवर्गी श्रद्धा अपनी
जो नाटक से सीखी हुई थी,
व्यथित होकर पूछने लगी,
क्या सैनिक ऐसे भी होते ?
सच मानों तो सैनिक ऐसे ही होते हैं
परंतु जो हम नही जानते -----
नाटक के सैनिक का मरना,
नाटक, केवल तालियों के लिए
वीरश्री से भरे शब्द जो
वाहवाही के लिए जुटाए
पटाक्षेप के हो जानेपर
वापस घर में खाए, सोए।
किन्तु रेल का जो सैनिक है,
हाथ भले ही दहीबडे का दोना हो,
भले बात में कठिन डयूटी का रोना हो,
घर आंगन को सोच नैन में पानी हो,
जब अपना यह टिनोपाल का
मुलुक छोडकर जाता है
तोप, टँक, तम्बू की दुनियाँ का
रहिवासी होता है।
तब ना रहती कोई जम्हाई,
कोई दुखडा
दूर देश के आप्तजनों का
कोई बिरहा,
बदरंग कवच रेल में जो था,
गिर जाता है,
मूर्तिमंत पुरुषार्थ युद्ध में
भिड जाता है।
रेल का वही सैनिक, तोपें दाग रहा है।
आसपास की बमबारी में जाग रहा है
खन्दक के पीछे जो साथी छुपा हुआ है,
उसके लिए रोटी का टुकडा बचा रहा है।
शरीर छलनी होवे फिर भी
अशरण बाँहें ताने ऊपर,
इस धरती पर गिरनेवाली
नभ की छत को तोल रहा है।
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Sunday, August 7, 2011
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