Saturday, August 6, 2011

किनारा से --सुना था कभी

सुना था कभी

सुना था कभी कुछ इस तरह ---
असीम, अनंत
विश्र्व का आंगन
फिरे पृथ्वी नामक
छोटा सा ये कण।

उसमें है एशिया,
उसमें एक भारत है,
उसके एक शहर में
छोटा एक घर है।

उसके एक कोने में
रहता है कोई मैं,
ऐसी है क्षुद्रता
जिसका ना पार है।

छप्पर के कोने में
एख जाल बुनकर
रहती है मकडी
क्षुद्र कीट खाकर।

संसार नीति
चलती है ऐसी
फिर भी अहंता
भरी है कैसी।

किन्तु फिर सोचा क्या यही सच है ---
क्षुद्र हो देह पर
उसमें है चेतना
जिससे इस विश्र्व का
सुफल हो जानना।

कांच का एक गोला
उसमें बारीक तार
फैला सकता प्रकाश
रात भर, आरपार।

ऐसी ही मेरी
देह की बाती
अज्ञान भेद कर
ज्ञान देख पाती।

अब ना कोई
अलगता बची है
जो भी अनंत है
कण भी वही है।

घाटी में गूँजा
जो हवा का गीत
आकाशगंगा में
तारों की प्रीत।

वैभव वसंत का
और उदार वर्षा
लता पर खिले फूल
केशर सी उषा।

प्रेरणा इन्हीं से
सृष्टि में भरती
जीवन की लालसा
अंतर में झरती।

वही तेज जीवन का
दान मिला मुझको
क्षुद्र कैसे कहूँ
असीम कहूँ इसको।
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